गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 200

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सोलहवां अध्याय
परिशिष्ट-1
दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा
93. काम-क्रोध-लोभ-मुक्ति का शास्त्रीय संयम-मार्ग

23. इन सब बातों पर ध्यान रखकर सृष्टि में ढंग से रहिए, संयम से चलिए। मनमानी न कीजिए। ‘लोक-संग्रह’ का अर्थ यह नहीं कि लोग जैसा कहें, वैसा किया जाये। मनुष्यों का संघ बढ़ाते जाना? संपत्ति का ढेर इकट्ठा करते जाना- इसे सुधार नहीं कहते। विकास संख्या पर अवलंबित नहीं है। समाज यदि बेशुमार बढ़ने लगेगा, तो लोग एक-दूसरे का खून करने लग जायेंगे। पहले पशु-पक्षियों को खाकर मनुष्य मत्त बनेगा; फिर अपने बाल-बच्चों को खाने लगेगा। काम-क्रोध में सार है, यह बात यदि मान लें, तो फिर अंत में मनुष्य मनुष्य को फाड़ खायेगा, इसमें अणुमात्र संदेह नहीं है। लोक-संग्रह का अर्थ है, सुंदर और विशुद्ध नीतिमार्ग लोगों को दिखाना। काम-क्रोध से मुक्त हो जाने के कारण यदि पृथ्वी से मनुष्य का लोप हो जायेगा, तो वह मंगल पर उत्पन्न हो जायेगा। आप चिंता न करें। अव्यक्त परमात्मा सब जगह व्याप्त है। वह हमारी चिंता कर लेगा। अतः पहले हम मुक्त हो लें। आगे बहुत दूर देखने की जरूरत नहीं है। सारी सृष्टि और मानव जाति की चिंता मत करो। तुम अपनी नैतिक शक्ति बढ़ाओ। काम-क्रोध को पल्ला झाड़कर फेंक दो। आपुला तू गळा घेई उगवूनि- पहले अपना गला तो छुड़ा लो! तुम्हारी गर्दन जो फंसी है, पहले उसे बचाओं। इतना कर लो, तो भी काफी है।

24. संसार-समुद्र से दूर किनारे खड़े रहकर समुद्र की मौज देखने में आनंद है। जो समुद्र में डूब रहा है, जिसमी आंख-नाक में पानी भर रहा है, उसे समुद्र का क्या आनंद है? संत समुद्र-तट पर खड़े रहकर आनंद लूटते हैं। संसार से अलिप्त रहने की इस संत-वृत्ति का जीवन में संचार हुए बिना आनंद नहीं। अतः कमल-पत्र की तरह अलिप्त रहो। बुद्ध ने कहा है- ‘संत ऊँचें पर्वत के शिखर पर खड़े रहकर नीचे संसार की ओर देखते हैं, तब उन्हें संसार क्षुद्र मालूम होता है।’ आप भी ऊपर चढ़कर देखिए, तो फिर यह विशाल विस्तार क्षुद्र दिखायी देगा। फिर संसार में मन ही नहीं लगेगा।

सारांश, भगवान ने इस अध्याय में आग्रहपूर्वक कहा है कि आसुरी संपत्ति को हटाकर दैवी संपत्ति प्राप्त करो। आइए, हम ऐसा ही यत्न करें।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रविवार 5–6–32

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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