सोलहवां अध्याय
परिशिष्ट-1
दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा
89. अहिंसा की और हिंसा की सेना
4. जिस तरह पहले अध्याय में एक ओर कौरव-सेना और दूसरी ओर पांडव-सेना आमने-सामने खड़ी है, उसी तरह यहाँ सद्गुणरूपी दैवी-सेना और दुर्गुणरूपी आसुरी-सेना एक-दूसरे के सामने खड़ी की है। बहुत प्राचीनकाल से मानवीय मन में सदसत्-प्रवृत्तियों का जो झगड़ा चलता है, उसका रूपकात्मक वर्णन करने की परिपाटी पड़ गयी है। वेद मे इंद्र और वृत्र, पुराणों में देव और दानव, वैसे ही राम और रावण, पारसियों के धर्मग्रंथों में अहुरमज्द और अहरिमान, ईसाई मजहब में प्रभु और शैतान, इस्लाम मे अल्लाह और इब्लीस- इस तरह के झगड़े सभी धर्मों में आते हैं। काव्य में स्थूल और मोटे विषयों का वर्णन सूक्ष्म वस्तुओं के रूपकों के द्वारा किया जाता है, तो धर्मग्रन्थों में सूक्ष्म मनोभावों का वर्णन उन्हें ठोस स्थूल रूप देकर किया जाता है। काव्य में स्थूल का सूक्ष्म द्वारा वर्णन किया जाता है, तो यहाँ सूक्ष्म का स्थूल के द्वारा। इससे यह नहीं सुझाना है कि गीता के आरंभ में युद्ध का जो वर्णन है वह केवल काल्पनिक है। हो सकता है कि वह ऐतिहासिक घटना हो, परंतु कवि यहाँ उसका उपयोग अपने इष्ट हेतु को सिद्ध करने के लिए कर रहा है। कर्त्तव्य के विषय में जब मन में मोह पैदा हो जाता है, तब मनुष्य को क्या करना चाहिए, यह बात युद्ध के रूपक के द्वारा समझायी गयी है। इस सोलहवें अध्याय में भलाई और बुराई का झगड़ा बताया गया है। गीता में युद्ध का रूपक भी दिया गया है। 5. कुरुक्षेत्र बाहर भी है और हमारे भीतर भी। बारीकी से देखा जाये, तो झगड़ा हमारे मन में होता है, वही हमें बाहरी जगत में मूर्तिमान दिखायी देता है। बाहर जो शत्रु खड़ा है, वह मेरे ही मन का विकार साकार होकर खड़ा है। दर्पण में जिस प्रकार मेरा ही बुरा-भला प्रतिबिंब मुझे दीखता है, उसी तरह मेरे मन के बुरे-भले विचार मुझे बाहर शत्रु-मित्र के रूप में दिखायी देते हैं। जैसे हम जागृति की ही बातें स्वप्न में देखते हैं, वैसे ही जो हमारे मन में है, वही हम बाहर देखते हैं। भीतर के और बाहर के युद्ध में कोई अंतर नहीं है। सच पूछिए, तो असली युद्ध भीतर ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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