गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 189

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सोलहवां अध्याय
परिशिष्ट-1
दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा
88. पुरुषोत्तम-योग की पूर्व-प्रभाः दैवी संपत्ति

3. अब, आज हम देखें कि इस सोलहवें अध्याय में क्या कहा गया है? जिस प्रकार सूर्योदय होने के पहले उसकी प्रभा फैलने लगती है, उसी प्रकार जीवन में कर्म, भक्ति और ज्ञान से पूर्ण पुरुषोत्तम-योग के उदय होने के पहले सद्गुणों की प्रभा बाहर प्रकट होने लगती है। परिपूर्ण जीवन की इस आगामी प्रभा का वर्णन इस सोलहवें अध्याय में किया गया है। किस अंधकार से झगड़कर यह प्रभा प्रकट होती है, उसका भी वर्णन इसमें किया गया है।

किसी वस्तु को मानने के लिए हम कोई प्रत्यक्ष प्रमाण देखना चाहते हैं। सेवा, भक्ति और ज्ञान हमारे जीवन में आ गये हैं, यह कैसे समझा जाये। खेत पर हम मेहनत करते हैं, तो उसके फलस्वरूप अनाज की फसल हम तौल-नापकर घर ले आते हैं। इसी तरह हम जो साधना करते है, उससे हमें क्या-क्या अनुभव हुए, कितनी सद्वृत्तियां गहरी पैठीं, कितने सद्गुण हममें आये, जीवन सचमुच सेवामय कितना हुआ- इसकी जांच करने की ओर यह अध्याय संकेत करता है।

जीवन की कला कितनी ऊंची चढ़ी, इसे नापने के लिए यह अध्याय है। जीवन की इस वर्धमान कला को गीता ‘दैवी संपत्ति’ का नाम देती है। इसके विरुद्ध जो वृत्तियां हैं, उन्हें ‘आसुरी’ कहा है। सोलहवें अध्याय में दैवी और आसुरी संपत्तियों का संघर्ष बताया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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