गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 185

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पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
86. ज्ञान-लक्षण: मैं पुरुष, वह पुरुष, यह भी पुरुष

17. पहले कर्म में भक्ति का पुट दिया, अब ज्ञान का भी योग कर दिया, तो जीवन का एक दिव्य रसायन बन गया। गीता ने हमें अंत में अद्वैतमय सेवा के रास्ते पर ला पहुँचाया। इस सारी सृष्टि में तीन पुरुष विद्यमान है। एक ही पुरुषोत्तम ने ये तीन रूप धारण किये हैं। तीनों को मिलाकर वास्तव में एक ही पुरुष है। केवल अद्वैत है। यहाँ गीता के हमें सबसे ऊंचे शिखर पर लाकर छोड़ दिया है। कर्म, भक्ति, ज्ञान, सब एकरूप हो गये। जीव, शिव, सृष्टि, सब एकरूप हो गये। कर्म, भक्ति और ज्ञान में कोई विरोध नहीं रह गया।

18. ज्ञानदेव ने ‘अमृतानुभव’ में महाराष्ट्र का प्रिय दृष्टांत दिया है-

देव देऊळ परिवारू। कीजे कोरूनि डोंगरू।
तैसा भक्तीचा वेव्हारू। कां न होआवा॥

-‘पर्वत कुरेद कर देव, मंदिर आदि परिवार बनाया; भक्ति का भी ऐसा व्यवहार क्यों न हो?’ एक ही पत्थर को कुरेदकर उसी का मंदिर, उस मंदिर में पत्थर की गढ़ी हुई भगवान की मूर्ति और उसके सामने पत्थर ही भक्त, उसके पास पत्थर के ही बनाये हुए फूल, ये सब जैसे एक ही पत्थर की चट्टान खोद-काटकर बनाते हैं- एक ही अखंड पत्थर अनेक रूपों में सजा हुआ है, वैसा ही भक्ति के व्यवहार में भी क्यों न होना चाहिए? स्वामी-सेवक-संबंध रहकर भी एकता क्यों नहीं हो सकती? यह बाह्य सृष्टि, यह पूजा-द्रव्य पृथक होते हुए भी आत्मरूप क्यों न बन जायें? तीनों पुरुष एक ही तो हैं’ नान, कर्म भक्ति, इन तीनों को मिलाकर एक विशाल जीवन-प्रवाह बना दिया जाये, ऐसा यह परिपूर्ण पुरुषोत्तम-योग है। स्वामी, सेवक और सेवा-द्रव्य सब एकरूप ही हैं, अब भक्ति-प्रेम का खेल खेलना है।

19. ऐसा यह पुरुषोत्तम-योग जिसके हृदय में अंकित हो जाये, वही सच्ची भक्ति करता है। स सर्वविद् भजति मां सर्वभावेन भारत।- ऐसा पुरुष ज्ञानी होकर भी संपूर्ण भक्त रहता है। जिसमें ज्ञान है, उसमें प्रेम तो है ही। परमेश्वर का ज्ञान और परमेश्वर का प्रेम ये दो अलग चीजें नहीं हैं। ‘करेला कडुआ है’- ऐसा ज्ञान हो, तो उसके प्रति प्रेम नही उत्पन्न होता। एकाध अपवाद हो सकता है; पर जहाँ कडुएपन का अनुभव हुआ कि जी ऊबा। पर मिश्री का ज्ञान होते ही प्रेम बहने लगता है। तुरंत ही प्रेम का स्त्रोत उमड़ पड़ता है। परमेश्वर के विषय में ज्ञान होना और प्रेम उत्पन्न होना, दोनों बातें एक ही हैं। परमेश्वर के रूप में माधुर्य की उपमा क्या रद्दी शक्कर से ही जायेॽ उस मधुर परमेश्वर का ज्ञान होते ही उसी क्षण प्रेम-भाव भी पैदा हो जायेगा। यही मानिए कि ज्ञान होना और प्रेम होना, ये दोनों मानो भिन्न क्रियाएं ही नहीं हैं। अद्वैत में भक्ति को स्थान है या नहीं, इस बहस में कुछ नहीं रखा। ज्ञानदेव कहते हैं- हे चि भक्ति हें चि ज्ञान। एक विठ्ठल चि जाण॥- ‘एक विठ्ठल को ही जान। वही भक्ति है, वही ज्ञान है।’ भक्ति और ज्ञान एक ही वस्तु के दो नाम है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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