पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
84. सेवा की त्रिपुटि: सेव्य, सेवक, सेवा-साधन
12. सृष्टि की जो नश्वरता है, वही उसकी अमरता है। सृष्टि का रूप छल-छल बह रहा है।यह रूप-गंगा यदि बहती न रहे, तो उसका एक डबरा बन जायेगा। नदी का पानी अखंड रूप से बहता रहता है। वह सतत बदलता रहता है। एक बूंद गयी, दूसरी आयी। वह पानी जीवित रहता है। वस्तु में जो आनंद मालूम होता है, वह उसकी नवीनता के कारण। ग्रीष्म ऋतु में परमात्मा को और तरह के फूल चढ़ाये जाते हैं। वर्षा ऋतु में हरी-हरी दूब चढ़ायी जाती है। शरद ऋतु में सुरम्य कमल के पुष्प चढ़ाते हैं। तत्तत् ऋतुकालोद्धव फल-पुष्पों से भगवान की पूजा की जाती है। इसी से वह पूजा ताजी और नित्य नूतन प्रतीत होती है। उससे जी नहीं ऊबता। छोटे बच्चे को जब ‘क’ लिखकर कहते हैं कि ‘उस पर हाथ फेरो‚ इसे मोटा बनाओ‘ तो यह क्रिया उसे उबा देने वाली मालूम होती है। वह समझ नहीं पाता कि इसे मोटा क्यों बनाया जाता है। वह पेंसिल आड़ी करके उसे जल्दी मोटा बना देता है। परंतु आगे चलकर वह नये-नये अक्षरों को, उनके समुदाय को देखता है। तरह-तरह की पुस्तकें पढ़ने लगता है। साहित्य की नानाविध समुन-मालाओं का अनुभव लेता है, तब उसे अपार आनंद मालूम होता है। यही बात सेवा के क्षेत्र की है। साधनों की नित्य, नवीनता से सेवा की उमंग बढ़ती है। सेवा वृत्ति का विकास होता है। सृष्टि की यह नश्वरता नित्य नये पुष्प खिला रही है। गांव के निकट श्मशान है, इसी से गांव रमणीय मालूम होता है। पुराने लोग जा रहे हैं, नये बालक जन्म ले रहे हैं। सृष्टि नित्य नवीन बढ़ रही है। बाहर का यह श्मशान यदि मिटा दोगे, तो वह घर में आकर बैठ जायेगा। तुम ऊब उठोगे उन्हीं-उन्हीं व्यक्तियों को रोज-रोज देखकर। गर्मियों में गर्मी पड़ती है, पृथ्वी तपती है, परंतु इस से घबराओं नहीं। यह रूप बदल जायेगा। वर्षा का सुख लेने के लिए यह तपन आवश्यक है। यदि जमीन खूब तपी न होगी, तो पानी बरसते ही कीचड़ हो जायेगी। फिर तृणधान्य उसमें नहीं मिल पायेंगे। मैं एक बार गर्मियों में घूम रहा था। सिर तप रहा था। बड़ा आनंद आ रहा था। एक मित्र ने मुझसे कहा- ‘सिर तप जायेगा, तो तकलीफ होगी।’ मैंने कहा- ‘नीचे जमीन भी तो तप रही है। इस मिट्टी के पुतले को जरा तपने दो।’ सिर तपा हुआ हो, उस पर पानी की धार पड़ने लगे, तो कितना आनंद होता है! परंतु जो गर्मियों में तपता नहीं, वह पानी बरसने पर भी अपनी पुस्तक में सिर घुसाकर बैठा रहेगा। अपने कमरे में, उस क़ब्र में ही घुसा रहेगा। बाहर के इस विशाल अभिषेक पात्र के नीचे खड़ा रहकर आनंद से नाचेगा नहीं; परंतु हमारे वे महर्षि मनु, बड़े रसिक और सृष्टि-प्रेमी थे। वे स्मृति में लिखते हैं- ‘जब पानी बरसने लगे, तो छुट्टी कर दो।’ जब वर्षा हो रही हो, तो क्या आश्रम मैं बैठे पाठ घोखते रहें? वर्षा में तो नाचना-गाना चाहिए। सृष्टि से एकरूप होना चाहिए। वर्षा में पृथ्वी और आकाश एक-दूसरे से मिलते हैं। यह भव्य दृश्य कितना आनंददायी होता है। यह सृष्टि स्वयं हमें शिक्षा दे रही है। सारांश, सृष्टि की क्षरता, नश्वरता का अर्थ है, साधनों की नवीनता। इस तरह यह नव-नव-प्रसवा साधनदात्री सृष्टि, कमर कसकर सेवा के लिए खड़ा सनातन सेवक और वह सेव्य परमात्मा। अब चलने दो खेल।वह परमपुरुष पुरुषोत्तम नये-नये विविध सेवा-साधन देकर मुझसे प्रेममूलक सेवा ले रहा है। नाना प्रकार के साधन देकर वह मुझे खिला रहा है। मुझसे तरह-तरह के प्रयोग करा रहा है। यदि हमारे जीवन में ऐसी दृष्टि आ जाये तो कितना आनंद मिलेगा! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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