गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 181

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पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
84. सेवा की त्रिपुटि: सेव्य, सेवक, सेवा-साधन

10. सेव्य परमात्मा पुरुषोत्तम, सेवक जीव अक्षर-पुरुष। परंतु यह साधन रूप सृष्टि क्षर है। इसके ‘क्षर’ होने में बड़ा अर्थ है। सृष्टि का यह दूषण नहीं, भूषण हैं इससे सृष्टि में नित्य-नवीनता है। कल के फूल आज का काम नहीं दे सकते। वे निर्माल्य हो गये। सृष्टि नाशवान है, यह बड़े भाग्य की बात है। यह सेवा का वैभव है। रोज नवीन फूल सेवा के लिए तैयार मिलते हैं। उसी तरह मैं शरीर भी नया-नया धारण करे परमेश्वर की सेवा करूंगा। अपने साधनों को मैं नित्य नवीन रूप दूंगा और उन्हीं से उसकी पूजा करूंगा। इस नश्वरता के कारण यह सौंदर्य है।

11. चंद्र की कला जो आज है, वह कल नहीं। चंद्र का नित्य निराला लावण्य है। दूज के उस वर्धमान चंद्र को देखकर कितना आनंद होता है। शंकर के ललाट पर उस द्वितीया के चंद्र की शोभा प्रकट है। अष्टमी के चंद्रमा का सौंदर्य कुछ और ही होता है। उस दिन आकाश में गिने-चुने मोती ही दिखायी देते हैं। पूर्णिमा को चंद्रमा के तेज से तारे नहीं दीखते। पूर्णिमा को परमेश्वर का मुखचंद्र दीखता है। अमावास्या का आनंद तो बड़ा गंभीर होता है। उस रात्रि में कितनी निःस्तब्ध शांति छायी रहती है! चंद्रमा के सर्वग्रासी प्रकाश के हट जाने से छोटे-बड़े अगणित तारे पूरी आजादी से खुलकर जगमगाते रहते हैं। अमावास्या की रात में स्वतंत्रता पूर्ण रूप से विलास करती है। अपने तेज की शान दिखाने वाला चंद्रमा आज वहाँ नहीं है। अपने प्रकाश-दाता सूर्य से वह आज एकरूप हो गया है। वह परमेश्वर में मिल गया। उस दिन मानो वह दिखाता है कि जीव खुद आत्मार्पण करके किस तरह संसार को जरा भी दुःख न पहुँचाये। चंद्र का स्वरूप क्षर है, परिवर्तनशील है; परंतु वह भिन्न-भिन्न रूपों में आनंद देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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