दूसरा अध्याय
सब उपदेश थोड़े में: आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि
10. आदर्श गुरुमूर्ति
20. शास्त्र भी बतला दिया, कला भी बतला दी, किन्तु इतने से पूरा चित्र आंखों के सामने खड़ा नहीं होता। शास्त्र निर्गुण है, कला सगुण है; परन्तु सगुण भी साकार हुए बिना व्यक्त नहीं होता। केवल निर्गुण जिस प्रकार हवा में रहता है, उसी प्रकार निराकार सगुण की हालत भी हो सकती है। इसका उपाय है, जिसमें गुण मूर्तिमान हुए हैं, उसका दर्शन। इसीलिए अर्जुन कहता है- "भगवन आपने जीवन के मुख्य सिद्धान्त बता दिये, उन सिद्धान्तों को आचरण में लाने की कला भी बतला दी, तो भी इसका स्पष्ट चित्र मेरे सामने खड़ा नहीं होता। अतः मुझे अब चरित्र सुनाइए। ऐसे पुरुषों के लक्षण बताइए, जिनकी वृद्धि में सांख्य-निष्ठा स्थिर हो गयी है और फल-त्यागरूपी योग जिनकी रग-रग में व्याप्त हो गया है। जिन्हें हम ‘स्थितप्रज्ञ’ कहते हैं, जो फल-त्याग की पूरी गहराई दिखलाते हैं, कर्म-समाधि में मग्न हैं और निश्चय के महा-मेरू है; वे बोलते कैसे हैं, बैठते कैसे हैं, चलते कैसे हैं, यह सब मुझे बताइए। वह मूर्ति कैसी होती है, उसे कैसे पहचाने? यह सब कहिए भगवन!" 21. इसके लिए भगवान ने दूसरे अध्याय के अंतिम अठारह श्लोक में स्थितप्रज्ञ का गंभीर और उदात्त चरित्र चित्रित किया है। मानों इन अठारह श्लोकों में गीता के अठारह अध्यायों का सार ही एकत्र कर दिया है। ‘स्थितप्रज्ञ’ गीता की आदर्श मूर्ति है। यह शब्द भी गीता का अपना स्वतंत्र है। आगे पांचवें अध्याय में जीवन्मुक्तका, बारहवें में भक्त का, चौदहवें में गुणतीत का और अठारहवें में ज्ञाननिष्ठ का, ऐसा ही वर्णन आया है; परन्तु स्थितप्रज्ञ का वर्णन इस सबसे अधिक सविस्तर और खोलकर किया है। उसमें सिद्ध-लक्षण के साथ-साथ साधक-लक्षण भी बताये हैं। हजारों सत्याग्रही स्त्री-पुरुष सायंकालीन प्रार्थना में इन लक्षणों का पाठ करते हैं। यदि प्रत्येक गांव और प्रत्येक घर में ये पहुँचाये जा सकें, तो कितना आनन्द होगा! परन्तु पहले ये हमारे हृदय में पैठें, तो फिर बाहर अपने-आप पहुँच जायेंगे। नित्यपाठ की चीज यदि यांत्रिक हो गयी, तो फिर वह चित्त में अंकित होने की जगह उलटी मिट जाती है। पर यह दोष नित्यपाठ का नहीं, मनन न करने का है। नित्यपाठ के साथ-साथ नित्य मनन और नित्य आत्मपरीक्षण आवश्यक है। 22. 'स्थितप्रज्ञ' यानि स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य, यह तो उसका नाम ही बता रहा है। परन्तु संयम के बना बुद्धि स्थिर होगी कैसे? अतः स्थितप्रज्ञ को संयममूर्ति बताया गया है। बुद्धि हो आत्मनिष्ठ, और अंतर-बाह्य इंद्रियां हों बुद्धि के अधीन-यह है संयम का अर्थ। स्थितप्रज्ञ सारी इंद्रियों को लगाम चढ़ाकर उन्हें कर्मयोग में जोतता है। इंद्रिय रूपी बैलों से वह निष्काम स्वधर्माचरण की खेती भलीभाँति करा लेता है। अपना प्रत्येक श्वासोच्छ्वास वह परमार्थ में खर्च करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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