पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
82. प्रयत्न-मार्ग से भक्ति भिन्न नहीं
3. रामायण में रावण, कुंभकर्ण और विभीषण, ये तीन भाई हैं। कुंभकर्ण तमोगुण है, रावण रजोगुण है, विभीषण सत्त्वगुण है। हमारे शरीर में इन तीनों की 'रामायण' रची जा रही है। इस रामायण में रावण और कुंभकर्ण का तो नाश ही विहित है। रहा केवल विभीषण-तत्त्व। यदि वह हरिचरण-शरण हो जाये, तो उन्नति का साधक और पोषक हो सकेगा। इसलिए वह अपनाने जैसा है। हमने चौदहवें अध्याय में इस चीज को समझ लिया है। इस पंद्रहवें अध्याय के आरंभ में फिर वह बात आयी है। सत्त्व-रज-तम से भरे संसार को असंगरूपी शस्त्र से छेद डालो। रज-तम का निरोध करो। सत्त्वगुण का विकास करके पवित्र बनो और उसकी आसक्ति को जीतकर अलिप्त रहो। कमल का यह आदर्श भगवद्गीता प्रस्तुत कर रही है। 4. भारतीय संस्कृति में जीवन की आदर्श वस्तुओं को, उत्तमोत्तम वस्तुओं को कमल की उपमा दी गयी है। कमल भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। उत्तमोत्तम विचार प्रकट करने का चिह्न कमल है। कमल स्वच्छ और पवित्र होकर भी अलिप्त रहता है। पवित्रता और अलिप्तता, ऐसी दुहरी शक्ति कमल में है। भगवान के भिन्न-भिन्न अवयवों को कमल की उपमा देते हैं। नेत्र-कमल, पद-कमल, कर-कमल, मुख-कमल, नाभि-कमल, हृदय कमल, शिर-कमल आदि उपमाओं के द्वारा यह भाव हमारे मन में बैठा दिया है कि सर्वत्र सौंदर्य और पावित्र्य के साथ ही अलिप्तता है। 5. पिछले अध्याय में बतायी साधन को पूर्णता पर पहुँचाने के लिए यह अध्याय है। प्रयत्न में आत्म-ज्ञान और भक्ति मिल जाये, तो फिर पूर्णता आ जायेगी। भक्ति भी प्रयत्न-मार्ग का ही एक भाग है। आत्म-ज्ञान और भक्ति उसी साधन के अंग हैं। वेद में ऋषि कहते हैं- यो जागार तं ऋचः कामयन्ते, यो जागार तमु सामानि यन्ति। ‘जो जागृत रहता है, उससे वेद प्रेम करते है, उससे भेंट करने के लिए वे आते हैं।’ अर्थात् जो जागृत है, उसके पास वेदनारायण आते हैं। उसके पास ज्ञान आता है, भक्ति आती है। प्रयत्न-मार्ग से ज्ञान और भक्ति पृथक नहीं हैं। इस अध्याय में यही दिखाना है कि ये दोनों तत्त्व प्रयत्न में ही मधुरता लाने वाले हैं। अतः एकाग्रचित्त से भक्ति-ज्ञान का यह स्वरूप श्रवण कीजिए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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