गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 17

Prev.png
दूसरा अध्याय
सब उपदेश थोड़े में: आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि
9. फल-त्याग के दो उदाहरण

18. पुंडलीक ने जो यह ‘भी’- सिद्धान्त का उपयोग किया, वह फलत्याग की युक्ति का एक अंग है। फल-त्यागी पुरुष कर्म समाधि जैसी गंभीर होती है, वैसी ही उसकी वृत्ति व्यापक, उदार और सम रहती है। इस कारण वह विविध तत्त्वज्ञान के जंजाल में नहीं पड़ता और न अपना सिद्धांत छोड़ता है। नान्यदस्तीविवादिनः - ‘यही है, दूसरा बिलकुल नहीं’, ऐसे विवाद में वह नहीं पड़ता। ‘यह भी है और वह भी; परन्तु मेरे लिए तो यही है’ ऐसी उसकी नम्र और निश्चयी वृत्ति रहती है।

एक बार एक गृहस्थ एक साधु के पास गया और उसने उससे पूछा- "मोक्ष-प्राप्ति के लिए क्या घर-बार छोड़ना आवश्यक है?" साधु ने कहा- "नहीं तो। देखो, जनक जैसों ने जब राजमहल में रहकर मोक्ष प्राप्त कर लिया, तो फिर तुम्हें ही घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है?" फिर दूसरा मनुष्य आया और साधु से उसने पूछा- "स्वामी जी, घर-बार छोड़े बिना मोक्ष मिल सकता है?" साधु ने कहा- "कौन कहता है? घर में रहकर सेंत-मेंत में ही मोक्ष मिलता होता, तो शुक जैसों ने जो घर-बार छोड़ा, तो क्या वे मूरख थे?" बाद में उन दोनों की जब एक-दूसरे से मुलाकात हुई, तो दोनों में बड़ा झगड़ा मचा। एक कहने लगा- "साधु ने घर-बार छोड़ने के लिए कहा है।" दूसरे ने कहा- "नहीं, उन्होंने कहा है कि घर-बार छोड़ने की आवश्यकता नहीं है।" तब दोनों साधु के पास आये। साधु ने कहा- "दोनों बातें सहीं हैं। जैसी जिसकी भावना वैसा ही उसका मार्ग, और जिसका जैसा प्रश्न, वैसा ही उसका उत्तर। घर छोड़ने की जरूरत है, यह भी सत्य है और घर छोड़ने की जरूरत नहीं है, यह भी सत्य है।" इसी का नाम है ‘भी’- सिद्धान्त।

19. पुंडलीक के उदाहरण से यह मालूम हो जाता है कि फल-त्याग किस मंजिल तक पहुँचने वाला है। तुकाराम को जो प्रलोभन भगवान देना चाहते थे, उसमें पुंडलीक वाला लालच बहुत ही मोहक था, परन्तु वह उस पर मोहित नहीं हुआ। यदि हो जाता, तो फंस जाता। अतः एक बार साधन का निश्चय हो जाने पर फिर अंत तक उसका आचरण करते रहना चाहिए। फिर बीच में प्रत्यक्ष भगवान के दर्शन जैसी चीज खड़ी हो जाये, तो भी उसके लिए साधन छोड़ने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। देह बची है, वह साधना के लिए ही है। भगवान का दर्शन तो हाथ में ही है, वह जाता कहाँ है? सर्वात्मकर्पण माझें हिरोनि नेतो कोण? मनीं भक्तीची आवडी- "मेरा सर्वात्मभाव कौन छीन ले जा सकता है? मेरा मन तो तेरी भक्ति में रंगा हुआ है।"

इसी भक्ति को प्राप्त करने के लिए हमें यह जन्म मिला है। मां ते संगाऽस्त्वकर्मणि- इस गीता वचन का अर्थ यहाँ तक जाता है कि निष्काम कर्म करते हुए अकर्म की अर्थात अंतिम कर्म-मुक्ति की, यानि मोक्ष की भी वासना मत रख। वासना से छुटकारा ही तो मोक्ष है। मोक्ष को वासना से क्या लेना देना? जब फल-त्याग इस मंजिल तक पहुँच जाता है, तब समझो कि जीवनकला की पूर्णिमा सध गयी।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः