गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 162

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चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
76. तमोगुण और उसका उपाय शरीर-श्रम

6. आजकल चारों ओर समाज-सुधार की चर्चा चलती है। साधारण आदमी को भी कम-से-कम इतना सुख मिलना चाहिए और इसके लिए अमुक तरह की समाज-रचना होनी चाहिए, आदि चर्चा चलती है। एक ओर अतिशय सुख है, तो दूसरी ओर अतिशय दुःख। एक ओर संपत्ति का ढेर, तो दूसरी ओर दरिद्रता की गहरी खाई। यह सामाजिक विषमता कैसे दूर हो? सभी आवश्यक सुख सहज रूप से प्राप्त करने का एक ही उपाय है और वह है आलस्य छोड़कर सब श्रम करने को तैयार हों। मुख्य दुःख हमारे आलस्य के ही कारण है। यदि सब लोग शारीरिक श्रम का निश्चय कर लें, तो बहुत-से दुःख दूर हो जायेंगे।

परंतु आज समाज में हमें क्या दीखता है? एक ओर जंग चढ़कर निरुपयोगी बने हुए लोग हैं। श्रीमानों की इंद्रियां जंग खा रही हैं। उनके शरीर का उपयोग ही नहीं किया जा रहा। दूसरी ओर इतना काम करना पड़ रहा है कि सारा शरीर घिस-घिसकर गल गया है। सारे समाज में शारीरिक श्रम से बचने की प्रवृत्ति है। जो मर-पचकर काम करते हैं, वे खुशी-खुशी ऐसा नहीं करते। छुटकारा नहीं है, इसलिए करते हैं। पढ़े-लिखे समझदार लोग श्रम से बचने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाते हैं। कोई कहते हैं- ‘व्यर्थ क्यों शारीरिक श्रम में समय गंवायें?, परंतु कोई ऐसा नही कहता- ‘यह नींद क्यों लें?, 'भोजन में समय क्यों नष्ट करें?', भूख लगती है, तो खाते हैं। नींद आती है, तो सो जाते हैं। परंतु जब शारीरिक श्रम का प्रश्न आता है, तभी हम कहते हैं- 'व्यर्थ क्यों अपना समय नष्ट करें? हम क्यों यह काम करें, क्यों हम अपने शरीर को इतने कष्ट में डालें? हम मानसिक श्रम तो कर ही लेते हैं!' भले आदमी! यदि मानसिक काम करते हैं, तो फिर खाना भी मानसिक खा लीजिए और नींद भी मानसिक ले लीजिए! मनोमय नींद और मनोमय भोजन करने की योजना बना लीजिए न!

7. इस तरह समाज में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे, जो दिन-रात पिसते-मरते हैं और दूसरे वे, जो हाथ तक नहीं हिलाते। मेरे एक मित्र ने एक दिन कहा- 'कुछ रुंड हैं, तो कुछ मुंड।', एक ओर धड़ है, दूसरी ओर सिर। धड़ सिर्फ खपता है, सिर सिर्फ विचार करता है। इस तरह समाज में ये राहु-केतु, रुंड और मुंड, ऐसे दो प्रकार हो गये हैं। परंतु यदि सचमुच ही ये रुंड-मुंड होते, तो अच्छा होता। तब अंध-पंगु-न्याय से ही कोई व्यवस्था हो सकती थी। अंधे को लंगड़ा रास्ता दिखाता, लंगड़े को अंधा कंधे पर बैठाता। परंतु यहाँ केवल रुंड के अथवा केवल मुंड के अलग-अलग गुट नहीं हैं। प्रत्येक में रुंड और मुंड दोनों हैं। ये जुड़े रुंड-मुंड सब जगह हैं। तब क्या करें? उपाय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति आलस्य छोड़ दे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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