बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
65. सगुण-निर्गुण की एकरूपता के विषय में स्वानुभव-कथन
28. इसलिए जब यह कहने की नौबत आती है कि सगुण-उपासक और निर्गुण उपासक में क्या भेद है, तो वाणी कुंठित हो जाती है। सगुण और निर्णुण अंत में एक हो जाते हैं। भक्ति का स्त्रोत यद्यपि पहले सगुण से फूटा हो, तो भी अंत में वह निर्गुण तक जा पहुँचता है।
पुरानी बात है। मैं वायकम का सत्याग्रह देखने गया था। मलबार के किनारे शंकराचार्य का जन्मग्राम है, यह बात मुझे याद थी। जहाँ होकर मैं जा रहा था, वहीं कहीं पास में भगवान शंकराचार्य का ‘कालड़ी’ ग्राम होगा, ऐसा मुझे लगा और मैंने साथ के मलयाली सज्जन से पूछा। उसने कहा- 'यहाँ से दस-बारह मील पर ही वह गांव है। आप जाना चाहते हैं क्या?' मैंने इनकार कर दिया। मैं आया था सत्याग्रह देखने के लिए, अतः मुझे और कहीं जाना उचित नहीं जान पड़ा और उस समय उस गांव को देखने के लिए नहीं गया। मुझे आज भी लगता है कि वह मैंने ठीक ही किया। परंतु रात को जब मैं सोने लगा, तो वह कालड़ी गांव और शंकराचार्य की वह मूर्ति मेरी आंखों के सामने बार-बार आ खड़ी होती। मेरी नींद उड़ जाती। वह अनुभव मुझे आज भी ताजा लग रहा है। शंकराचार्य का वह ज्ञानप्रभाव, उनकी वह दिव्य अद्वैतनिष्ठा, सामने फैले हुए संसार को मिथ्या ठहराने वाला उनका अलौकिक और ज्वलंत वैराग्य, उनकी गंभीर भाषा और मुझ पर हुए उनके अनंत उपकार- इन सबकी रह-रहकर मुझे याद आने लगती। रात को सारे भाव जाग्रत होते। तब मुझे इस बात का अनुभव हुआ कि निर्गुण में सगुण कैसे भरा हुआ है। प्रत्यक्ष भेंट होने में भी उतना प्रेम नहीं होता। निर्गुण में भी सगुण का परमोत्कर्ष ठसाठस भरा हुआ है।
मैं अक्सर किसी को कुशलपत्र वगैरह नहीं लिखता। पर किसी मित्र को पत्र न लिखने पर भी भीतर से उसका सतत स्मरण होता रहता है। पत्र न लिखते हुए भी मन में उसकी स्मृति भरी रहती है। निर्गुण में इस तरह सगुण गुप्त रहता है। सगुण और निर्गुण, दोनों एक रूप हैं। प्रत्यक्ष मूर्ति को लेकर पूजा करना, या प्रकट रूप से सेवा करना और भीतर से सतत संसार के कल्याण का चिंतन करते हुए बाहर से पूजा की क्रिया दिखायी न देना- इन दोनों का समान मूल्य और महत्त्व है।
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