बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
60. सगुण उपासक और निर्गुण उपासकः मां के दो पुत्र
5. इस प्रश्न का उत्तर देते हुए जैसे उस मां की विचित्र दशा होगी‚ ठीक वैसी ही स्थिति भगवान के मन की हो गयी है। अर्जुन कहता है- "भगवन‚ दो तरह के आपके भक्त हैं। एक आपके प्रति अत्यंत प्रेम रखता है‚ आपका सतत स्मरण करता है। उसकी आंखे आपकी प्यासी हैं‚ कान आपका गान सुनने को उत्सुक हैं‚ हाथ–पांव आपकी सेवा‚ पूजा के लिए उत्कंठित हैं। दूसरा है स्वावलंबी‚ इंद्रियों को सतत वश में रखने वाला‚ सर्वभूतहित में रत‚ रात-दिन समाज की निष्काम सेवा में ऐसा मग्न कि मानो उसे परमेश्वर का स्मरण ही न होता हो। यह है आपका अद्धैतमय दूसरा भक्त। अब मुझे यह बताइए कि इन दोनों में आपका प्रिय भक्त कौन-सा है?" अर्जुन का भगवान से यह प्रश्न है। अब जिस तरह उसे मां ने जवाब दिया‚ ठीक उसी तरह भगवान ने उत्तर दिया है- "वह सगुण भक्त मुझे प्रिय है। वह दूसरा भी मेरा ही है।" इस तरह भगवान असमंजस में पड़ गये हैं। कुछ-न-कुछ उत्तर देना था‚ इसलिए दे डाला। 6. और सचमुच बात भी ऐसी ही है। अक्षरशः दोनों भक्त एकरूप हैं। दोनों की योग्यता एक सी है। उनकी तुलना करना मर्यादा का अतिक्रमण करना है। पांचवें अध्याय में कर्म के विषय में जैसा प्रश्न अर्जुन ने पूछा था‚ वैसा ही यहाँ भक्ति के संबंध में पूछा है। पांचवें अध्याय में कर्म और विकर्म की सहायता से मनुष्य अकर्मदशा को प्राप्त होता है। वह अकर्मावस्था दो रूपों में प्रकट होती है। एक व्यक्ति रात-दिन कर्म करते हुए भी मानो लेशमात्र कर्म नहीं करता‚ और दूसरा चौबीस घंटों में एक भी कर्म न करते हुए मानो दुनिया भर के व्यवहार करता है। इन दोनों रूपों में अकर्म-दशा प्रकट होती है। अब इनकी तुलना कैसे की जाये? किसी वर्तुल की एक बाजू से दूसरी बाजू की तुलना कीजिए। एक ही वर्तुल की दो बाजूǃ उनकी तुलना कैसे करें? दोनों बाजू समान योग्यता रखती हैं‚ एकरूप हैं। अकर्म-भूमिका का विवेचन करते हुए भगवान ने एक को ‘संन्यास‘ और दूसरे को ‘योग‘ कहा है। शब्द भले ही दो हों‚ पर अर्थ एक ही है। संन्यास और योग दोनों मे निर्णय अंत में सरलता के आधार पर ही किया गया है। 7. सगुण-निर्गुण का प्रश्न भी ऐसा ही है। एक सगुण भक्त इंद्रियों के द्वारा परमेश्वर की सेवा करता है। दूसरा निर्गुण भक्त मन से विश्वकल्याण की चिंता करता है। पहला बाह्य सेवा में मग्न दिखायी देता है। परंतु भीतर से उसका चिंतन सतत जारी है। दूसरा कुछ भी प्रत्यक्ष सेवा करता हुआ नहीं दिखायी देता‚ परंतु भीतर से उसकी महासेवा चल ही रही है। इस प्रकार के दो भक्तों में श्रेष्ठ कौन है? रात-दिन कर्म करके भी लेशमात्र कर्म न करने वाला वह सगुण भक्त है। तो दूसरा निर्गुण उपासक भीतर से सबके हित का चिंतन सबकी चिंता करता है। ये दोनों भक्त भीतर से एकरूप ही हैं। शायद बाहर से भिन्न दिखायी देते हों‚ परंतु दोनों हैं एक-से ही‚ दोनों भगवान के प्यारे हैं। फिर भी इनमें सगुण भक्ति अधिक सुलभ है। इस तरह भगवान ने जो उत्तर पांचवे अध्याय में दिया‚ वही यहाँ भी दिया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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