ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूप-दर्शन
58. सर्वार्थ-सार
14. उस परमेश्वर के दिव्य रूप का जो वर्णन है‚ उसमें बुद्धि चलाने की मेरी इच्छा नहीं। उसमें बुद्धि चलाना पाप है। विश्व-रूप वर्णन के उन पवित्र श्लोकों को हम पढ़ें और पवित्र बनें। बुद्धि चलाकर परमेश्वर के उस रूप के टुकड़े किये जायें‚ यह मुझे नहीं भाता। वह अघोर उपासना हो जायेगी। अघोरपंथी लोग श्मशान में जाकर मुर्दे चीरते हैं और तंत्रोपासना करते हैं। वैसी ही वह क्रिया हो जायेगी। परमेश्वर का वह दिव्य रूप- विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्। ऐसा वह विशाल और अंतरूप ǃ उसके वर्णन के श्लोकों को गायें और गाकर उपना मन निष्पाप और पवित्र बनायें। 15. परमेश्वर के इस सारे वर्णन में केवल एक ही जगह बृद्धि विचार करने लगती है। परमेश्वर अर्जुन से कहते हैं- "अर्जुन‚ ये सब-के-सब मरने वाले हैं‚ तू निमित्त मात्र हो जा। सब कुछ करने वाला तो मैं हूँ।" यही ध्वनि मन में गूंजती रहती है। जब यह विचार मन में आता है कि हमें ईश्वर के हाथों का एक हथियार बनना है‚ तो बुद्धि सोचने लगती है कि ईश्वर के हाथ का औजार बनें कैसे? कृष्ण के हाथ की मुरली कैसे बनूं? वे अपने होंठ से मुझे लगा लें और मुझसे मधुर स्वर निकालें‚ मुझे बजाने लगें यह कैसे होगा? मुरली बनना यानि पोला बननाǃ पर मुझमें तो विकार और वासनाएं ठसाठस भरी हुई हैं‚ ऐसी दशा से मधुर स्वर कैसे निकलेगा? मेरा स्वर तो दबा हुआ निकलता है। मैं घन वस्तु हूँ। मझमें अहंकार भरा हुआ है। मुझे निरहंकार होना चाहिए। जब मैं पूर्ण रूप से मुक्त, पोला हो जाऊंगा‚ तभी परमेश्वर मुझे बजायेगा; परंतु परमेश्वर के होंठों की मुरली बनना बड़े साहस का काम है। यदि उसके पैरों की जूतियां बनना चाहूं‚ तो भी आसान नहीं है। परमेश्वर की जूती ऐसी मुलायम होनी चाहिए कि परमेश्वर के पांव में जरा-सा भी घाव न लगे। परमेश्वर के चरण और कांटे-कंकड़ के बीच मुझे पड़ना है। मुझे अपने को कमाना होगा। अपनी खाल उतारकर उसे सतत कमाते रहना होगा‚ मुलायम बनाना होगा। अतः परमेश्वर के पांवों की जूती बनना भी सरल नहीं है। परमेश्वर के हाथ का औजार बनना हो‚ तो मुझे दस सेर वजन का लोहे का गोला नहीं बनना चाहिए। तपश्चर्या की सान पर अपने को चढ़ाकर तेज धार बनानी होगी। ईश्वर के हाथ में मेरी जीवन रूपी तलवार चमकनी चाहिए। यह ध्वनि मेरी बुद्धि में गूंजती रहती है। भगवान के हाथ का एक औजार बनना है- इसी विचार में निमग्न हो जाता हूँ।
मत्कर्मकृमत्परमो मदभक्तः संगवर्जितः 'हे पांडव‚ जो सब कर्म मुझे समर्पण करता है‚ मुझमें परायण रहता है‚ मेरा भक्त बनता है, आसक्ति का त्याग करता है और प्राणी मात्र में द्वेषरहित होकर रहता है‚ वह मुझे पाता है।' जिसका संसार में किसी से वैर नहीं‚ जो तटस्थ रहकर संसार की निरपेक्ष सेवा करता है‚ जो-जो करता है‚ सब मुझे अर्पित कर देता है‚ मेरी भक्ति से सराबोर है‚ क्षमावान‚ निःसंग‚ विरक्त‚ प्रेममय जो भक्त है‚ वह परमेश्वर के हाथ का हथियार बनता है‚ ऐसा यह सार है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रविवार‚ 1–5–32
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