ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूप-दर्शन
57. विराट विश्वरूप पचेगा भी नहीं
12. सारांश यह कि यह जगत् जैसा है‚ वैसा ही मंगल है। इस कालस्थलात्मक जगत् को एक जगह एकत्र करने की जरूरत नहीं है। अति परिचय में मजा नहीं है। कुछ चीजों से घनिष्ठता बढ़ानी होती है‚ परंतु मां की गोद में जाकर बैठेंगे। जिस मूर्ति के साथ जैसा व्यवहार करने की जरूरत हो‚ वैसा ही करना चाहिए। फूल को हम निकट लें‚ परंतु आग से बचकर रहें। तारे दूर से ही सुंदर लगते हैं। यही हाल सृष्टि का है। अति दूरवाली वह सृष्टि अति निकट लाने से हमें अधिक आनंद होगा‚ सो बात नहीं। जो चीज जहाँ है‚ उसे वहीं रहने देने में मजा है। जो चीज दूर से रम्य मालूम होती है। वह निकट लाने से सुखदायी ही होगी‚ ऐसा नहीं कर सकते। उसे वहीं दूर रखकर ही उसका रस चखना चाहिए। ढीठ बनकर, बहुत घनिष्ठता बढ़ाकर‚ अति परिचय कर लेने में कुछ सार नहीं। 13. सारांश यह कि तीनों काल हमारे सामने खड़े नहीं है‚ सो अच्छा ही है। तीनों कालों का ज्ञान होने से आनंद अथवा कल्याण होगा ही, ऐसा नहीं कह सकते। अर्जुन ने प्रेमवश हठ पकड़ लिया‚ प्रार्थना की‚ तो भगवान ने उसे स्वीकार कर लिया। उन्होंने उसे अपना वह विराट रूप दिखलाया; परंतु मुझे तो भगवान का छोटा-सा रूप ही पर्याप्त है। यह छोटा रूप परमेश्वर का टुकड़ा तो है नहीं‚ और यदि टुकड़ा भी हो‚ तो उस अपार और विशाल मूर्ति का एक चरण या चरण की एक अंगुली ही मुझे दीख गयी‚ तो भी मैं कहूंगा- "धन्य है मेरा भाग्यǃ" अनुभव से मैंने यह सीखा है। जमनालाल जी ने जब वर्धा में लक्ष्मीनारायण मंदिर हरिजनों के लिए खोल दिया‚ तो उस समय मैं दर्शन के लिए गया था। पंद्रह-बीस मिनट तक उस रूप को देखता रहा। समाधि लगने जैसी स्थिति मेरी हो गयी। भगवान का वह मुख‚ वह छाती‚ वे हाथ देखते-देखते पांवों तक पहुँचा और अंत में चरणों पर जाकर दृष्टि स्थिर हो गयी। गोड तुझी चरण–सेवा- ‘मधुर तेरी चरण सेवा‘– यही भावना अंत में रह गयी। यदि छोटे-से रूप में यह महान प्रभु न समाता हो‚ तो फिर उस महापुरुष के चरण ही दीख जाना पर्याप्त है। अर्जुन ने ईश्वर से प्रार्थना की‚ उसका अधिकार बड़ा था। उसकी कितनी घनिष्ठता‚ कितना प्रेम‚ कैसा सख्यभाव थाǃ मेरी क्या पात्रता है? मुझे तो चरण ही बस हैं‚ मेरा अधिकार उतना ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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