गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 123

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ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूप-दर्शन
57. विराट विश्वरूप पचेगा भी नहीं

11. जो बात स्थलात्मक सृष्टि को लागू है, वही कालात्मक सृष्टि पर भी लागू होती है। हमें भूतकाल की स्मृति नहीं रहती और भविष्य का ज्ञान नहीं होता‚ इसमें हमारा कल्याण ही है। कुरान शरीफ में पांच ऐसी वस्तुएं बतायी गयी हैं‚ जिनमें सिर्फ परमेश्वर की ही सत्ता है‚ मनुष्य प्राणी की सत्ता बिलकुल नहीं है। उनमें एक है– भविष्यकाल का ज्ञान। हम अंदाज जरूर लगाते हैं‚ परंतु अंदाज का अर्थ ज्ञान नहीं है। भविष्य का ज्ञान हमें नहीं होता‚ यह हमारे कल्याण की ही बात है। वैसे ही भूतकाल की स्मृति हमें नहीं रहती‚ यह भी सचमुच बड़ी अच्छी बात है। कोई दुर्जन यदि सज्जन बनकर भी मेरे सामने आये‚ तो भी उसके भूतकाल की स्मृति के कारण मेरे मन में उसके प्रति आदर नहीं होता। वह कितना ही कहे‚ उसके पिछले पापों को मैं सहसा भूल नहीं सकता। संसार उसके पापों को उसी अवस्था में भूल सकेगा‚ जबकि वह मनुष्य मरकर दूसरे रूप में हमारे सामने आयेगा।

पूर्व-स्मरण से विकार बढ़ते हैं। यदि पहले का यह सारा ज्ञान ही नष्ट हो जाये तो फिर सब समाप्तǃ पाप-पुण्य को भूल जाने की कोई युक्ति होनी चाहिए। वह युक्ति है मरण जब हमें इसी जन्म की वेदनाएं असह्य लगती हैं तब फिर पिछले जन्मों के कूड़ा-करकट की खोज क्यों करें? अपने इसी जन्म के कमरे में क्या कम कूड़ा-करकट है? अपना बचपन भी हम बहुत कुछ भूल जाते हैं। यह भूलना अच्छा ही है। हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के लिए भूतकाल का विस्मरण ही एकमात्र उपाय है। औरंगजेब ने जुल्म किया था, इसको कितने दिनों तक रटते रहोगे? गुजराती में रतन बाई का एक गरबा-गीत है। उसे हम बहुत बार यहाँ सनुते हैं। उसके अंत में कहा है– "संसार में सबकी कीर्ति ही शेष रहेगी। पाप को लोग भूल जायेंगे।" यह काल छननी कर रहा है। इतिहास में जितना अच्छा हो‚ उतना ले लेना चाहिए। पाप फेंक देना चाहिए। मनुष्य यदि बुराई को छोड़कर सिर्फ अच्छाई को ही याद रखे‚ तो कैसी बहार होǃ परंतु ऐसा नहीं होता। इसलिए विस्मृति की बड़ी आवश्यकता है। इसके लिए भगवान ने मृत्यु का निर्माण किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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