गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 120

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ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूप–दर्शन
56. छोटी मूर्ति में भी पूर्ण दर्शन संभव

7. मूर्ति–पूजा पर अनेक लोगों ने हमला किया है। बाहर के और यहाँ के भी कई विचारकों ने मूर्ति-पूजा को दोष दिया है। किंतु मैं ज्यों-ज्यों विचार करता हूँ त्यों–त्यों मूर्ति-पूजा की दिव्यता मेरे सामने स्पष्ट होती जाती है। मूर्ति-पूजा का अर्थ क्या है? एक छोटी-सी चीज में सारे विश्व का अनुभव करने को सीखना मूर्ति-पूजा है। एक छोटे-से गांव में भी ब्रह्मांड देखने को सीखना क्या गलत है? यह कल्पना की बात नहीं‚ प्रत्यक्ष अनुभव की बात है। विराट स्वरूप में जो कुछ है‚ वही सब एक छोटी–सी मूर्ति में है‚ वही एक मृत-कण में है। उस मिट्टी के ढेले में आम‚ केले‚ गेहूं‚ सोना‚ तांबा‚ चांदी‚ सभी कुछ है। सारी सृष्टि उस कण के भीतर भरी है। जिस तरह किसी छोटी नाटक मंडली में वे ही पात्र बार-बार भिन्न-भिन्न रूप बनाकर रंगमंच पर आते हैं‚ उसी तरह परमेश्वर को समझो। जैसे कोई एक नाटककार खुद ही नाटक लिखता है और खुद ही नाटक में काम भी करता है‚ उसी तरह परमात्मा भी अनंत नाटक लिखता है और स्वयं अनंत पात्रों के रूप में सजकर रंगभूमि पर अभिनय करता है। इस अनंत नाटक का एक पात्र पहचान लेने पर सारे पात्र पहचान लिये‚ ऐसा हो जायेगा।

8. काव्य की उपमा‚ दृष्टांत आदि के लिए जो आधार है‚ वही मूर्ति-पूजा के लिए भी है। किसी गोल वस्तु को हम देखते हैं‚ तो हमें आनंद होता है; क्योंकि उसमें एक व्यवस्थितता होती है। व्यवस्थितता ईश्वर का स्वरूप है। ईश्वर की सृष्टि सर्वांग-सुंदर है। उसमें व्यवस्थितता है। वह गोल वस्तु यानि व्यवस्थित ईश्वर की मूर्ति। परंतु जंगल में उगा टेड़ा-तिरछा पेड़ भी ईश्वर की ही मूर्ति है। उसमें ईश्वर की स्वच्छंदता है। उस पेड को कोई बंधन नहीं है। ईश्वर को कौन बंधन में डाल सकता है? वह बंधनातीत परमेश्वर उस टेढ़े-मेढ़े पेड़ में है। कोई सीधा सरल खंभा देखते है‚ तो उसमें ईश्वर की समता दिखायी देती है। नक्काशीदार खंभा देखते हैं‚ तो आकाश में नक्षत्रों के बेल-बूटे काढ़ने वाला परमेश्वर उसमें दिखायी देता है। किसी कटे-छंटे व्यवस्थित बाग में ईश्वर का संयमी रूप दिखायी देता है‚ तो किसी विशाल वन में ईश्वर की भव्यता और स्वतंत्रता के दर्शन होते हैं। जंगल में भी आनंद मिलता है और व्यवस्थित बगीचे में भी। तो फिर क्या हम पागल हैं? नहीं‚ आनंद दोनों में ही होता है‚ क्योंकि ईश्वरीय गुण प्रत्येक में प्रकट हुआ है। गोल-चिकने शालग्राम की बटिया में जो ईश्वरी तेज है‚ वही नर्मदा के ऊबड़–खाबड़ पत्थर के गणपति में है। अतः मुझे वह विराट स्वरूप अलग से देखने को न मिला‚ तो चिंता नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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