गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 115

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दसवां अध्याय
विभूति-चिंतन
53. प्राणी स्थित परमेश्वर

23. कोयल सुंदर‚ तो वह कौआ क्या असुंदर है‚ कौए का भी गौरव करो। मुझे तो वह बहुत प्रिय है। उसका व घना काला रंग‚ वह तीव्र आवाजǃ वह आवाज क्या बुरी है? नहीं‚ वह भी मीठी है। वह पंख फड़फड़ाता हुआ आता है‚ कैसा सुंदर लगता हैं छोटे बच्चों का चित्त खींच लेता है। नन्हा बच्चा बंद घर में नहीं खाता। बाहर आंगन में बैठकर उसे खिलाना पड़ता है और चिड़िया‚ कौए दिखाकर उसे कौर खिलाना पड़ता है। कौए के प्रति स्नेह रखने वाला वह बच्चा क्या पागल है? वह पागल नहीं‚ उसमें ज्ञान भरा हुआ है। कौए के रूप में व्यक्त परमेश्वर से वह बच्चा तुरंत एकरूप हो जाता है। माता चावल पर चाहे दही परोसे‚ दूध परोसे‚ या शक्कर परोसे‚ बच्चे को उसमें कोई आनंद नहीं। उसे आनंद है‚ कौए के पंख फड़फड़ाने में‚ उसके मुंह बिचकाने में। सृष्टि के प्रति छोटे बच्चों को इतना कौतूहल मालूम होता है‚ उसी पर तो सारी ‘ईसप-नीति’ रची गयी है। 'ईसप' को सर्वत्र ईश्वर दिखयी देता था। अपनी प्रिय पुस्तकों की सूची में मैं ईसप-नीति का नाम पहले रखूंगा‚ भूलूंगा नहीं। ईसप के राज्य में दो हाथों वाला’ दो पावों वाला मनुष्य ही अकेला नहीं है। उसमें सियार‚ कुत्ते‚ कौए‚ हिरन‚ खरगोश‚ कछुए‚ सांप‚ केंचुए- सभी बातचीत करते हैं‚ हंसते हैं। एक प्रचंड सम्मेलन ही समझिए नǃ ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती है। उसे दिव्य दर्शन प्राप्त हो गया है।

रामायण भी इसी तत्त्व पर‚ इसी दृष्टि पर खड़ी की गयी है। तुलसीदास जी ने राम की बाललीला का वर्णन किया है। राम आंगन में खेल रहे हैं। एक कौआ पास आता है‚ राम उसे धीरे से पकड़ना चाहते हैं। कौआ पीछे फुदक जाता है। अंत में राम थक जाते है; परंतु उन्हें एक युक्ति सूझती है। मिठाई का एक टुकड़ा लेकर कौए के पास जाते हैं। राम टुकड़ा जरा आगे बढ़ाते हैं‚ कौआ कुछ नजदीक आता है। इस तरह के वर्णन में तुलसीदास जी ने कई चौपाइयां लिख डाली हैं; क्योंकि वह कौआ परमेश्वर है। राम की मूर्ति का अंश ही उस कौए में भी है। राम और कौए की वह पहचान मानो परमात्मा से परमात्मा की पहचान है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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