गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 108

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दसवां अध्याय
विभूति-चिंतन
52. सृष्टिस्थित परमेश्वर

12. और वह पावन गंगा! जब मैं काशी में था, तो गंगा के किनारे जाकर बैठता था। रात्रि के एकांत समय में जाता था। कितना सुंदर और प्रसन्न उसका प्रवाह! उसका वह भव्य-गंभीर प्रवाह और उसमें प्रतिबिंबित वे आकाश के अनंत तारेǃ मैं मुग्ध हो जाता। शंकर के जटाजूट से अर्थात उस हिमालय से बहकर आनेवाली वह गंगा, जिसके तीर पर राज–पाट को तृणवत त्यागकर राजा लोग तप करने जा बैठते थे, उस गंगा का दर्शन करके मुझे असीम शांति मिलती थी। उस शांति का वर्णन मैं कैसे करूं? वाणी की वहाँ सीमा आ जाती है। यह समझ में आता कि हिंदू यह क्यों चाहता है कि मरने पर कम–से–कम मेरी अस्थि तो गंगा मं पड़े। आप हंसिए‚ आपके हंसने से कुछ बिगड़ता नहीं। परंतु मुझे ये भावनाएं बहुत पवित्र और संग्रहणीय लगती हैं। मरते समय गंगा–जल की दो बूंदें मुंह में डालते हैं। ये दो बूंदें क्या हैं? मानो परमेश्वर ही मुंह में उतर आता है। उस गंगा को परमात्मा ही समझो। वह परमेश्वर की करुणा बह रही है। तुम्हारा सारा भीतर–बाहर का कूड़ा–कर्कट वह माता धो रही है‚ बहा ले जा रही है। गंगामाता में यदि परमेश्वर प्रकटित न दिखायी दे‚ तो कहाँ दिखायी देगा? सूर्य, नदियां, धू–धू करके हिलोरें मारने वाला वह विशाल सागर– ये सब परमेश्वर की ही मूर्तियां हैं।

13. और वह पवनǃ कहाँ से आता है‚ कहाँ जाता है‚ कुछ पता नहीं। मानो भगवान का दूत ही है। हिंदुस्तान में कुछ वायु स्थिर हिमालय पर से आती है‚ कुछ गंभीर सागर पर से। यह पवित्र वायु हमारे हृदय को छूती है‚ हमें जागृत करती है‚ हमारे कानों में गुनगुनाती है। परंतु इस वायु का संदेश सुनता कौन है? जेलर ने यदि हमारा चार पंक्तियों का पत्र न दिया तो हमारा दिल खट्टा हो जाता है। अरे मंदभागी क्या रखा है उस चिट्ठी में? परमेश्वर का यह प्रेमभरा संदेश वायु के साथ हर घड़ी आ रहा है‚ उसे सुनǃ

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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