दसवां अध्याय
विभूति-चिंतन
51. मानवस्थित परमेश्वर
उम्र बढ़ती है तो सींग फूटते हैं, फिर परमेश्वर का स्मरण कहां। छोटे बच्चों के मन पर कोई लेप नहीं रहता। उनकी बुद्धि निर्मल होती है। बच्चे को हम सिखाते हैं- "झूठ मत बोला।" वह पूछता है- ‘झूठ किसे कहते हैं?’ तब उसे सत्य का सिद्धांत बताते हैं, "बात जैसी हो, वैसी ही कहनी चाहिए।" बच्चा उलझन में पड़ता है कि क्या जैसा हो वैसा कहने के अलावा भी कोई दूसरा तरीका है? जैसा न हो, वैसा कहें कैसे? चौकोर को चौकोर कहो, गोल मत कहो, ऐसा ही समझाने जैसा हैं बच्चे को आश्चर्य होता है। बच्चे विशुद्ध परमात्मा की मूर्ति हैं। प्रौढ़ लोग उन्हें गलत शिक्षा देते हैं। सारांश, मां, बाप, गुरु, संत, बच्चे इनमें यदि हम परमात्मा न देख सकें, तो फिर किस रूप में देखेंगे? इससे उत्कृष्ट रूप परमेश्वर का दूसरा नहीं है। परमेश्वर के इन सादे, सौम्य रूपों को पहले पहचानो। इनमें परमेश्वर स्पष्ट और मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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