गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 100

Prev.png
नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
48. थोड़ा भी मधुर


31. पत्रं पुष्पं फलं तोयम्- कुछ भी हो, उसके साथ भक्ति-भाव हो तो पर्याप्त है। कितना दिया, कितना चढ़ाया, यह भी मुद्दा नहीं, किस भावना से दिया, यह मुद्दा है।

एक बार एक प्रोफेसर के साथ मेरी बात चल रही थी! वह शिक्षण शास्त्र संबंधी थी। हम दोनों के विचार मिलते नहीं थे। अंत में प्रोफेसर ने कहा- "भाई, मैं अठारह साल से काम कर रहा हूँ।" प्रोफेसर को चाहिए था कि वे मुझे कायल करते; परंतु ऐसा न करते हुए जब उन्होंने मुझे कहा कि मैं इतने साल से शिक्षा का कार्य कर रहा हूं, तो मैंने उनसे मजाक में कहा- "अठारह साल तक बैल यदि यंत्र के साथ घूमता रहे, तो क्या वह यंत्र-शास्त्रज्ञ हो जायेगा?" यंत्रशास्त्रज्ञ और है, आंख मूंदकर चक्कर काटने वाला बैल और। शिक्षा-शास्त्रज्ञ और है और शिक्षा का बोझ ढोने वाला और। जो शास्त्रज्ञ होगा, वह छह महीने में ही ऐसा अनुभव प्राप्त कर लेगा कि जो अठारह साल तक बोझा ढोनेवाला मजदूर समझ भी नहीं सकेगा। सारांश यह कि उस प्रोफेसर ने मुझे अपनी दाढ़ी दिखायी कि मैंने इतने साल काम किया है, किंतु दाढ़ी से सत्य सिद्ध नहीं हो सकता।

इसी तरह परमेश्वर के सामने कितना ढेर लगा दिया, इसका महत्त्व नहीं है। मुद्दा नाप का, आकार का, कीमत का नही है; मुद्दा भावना का है। कितना, क्या अर्पण किया, इससे मतलब नहीं; बल्कि कैसे किया, यह मुद्दा है। गीता में सात सौ ही श्लोक हैं। पर ऐसे भी ग्रंथ हैं, जिनमें दस-दस हजार श्लोक हैं। किंतु वस्तु का आकार बड़ा होने से उसका उपयोग भी अधिक होगा, ऐसा नहीं कर सकते। देखने की बात यह है कि वस्तु में तेज कितना है, सामर्थ्य कितना है। जीवन में कितनी क्रिया की है इसका महत्त्व नहीं। ईश्वरार्पण-बुद्धि से याद एक भी क्रिया की हो, तो वही हमें पूरा अनुभव करा देगी। कभी-कभी एक ही पवित्र क्षण में हमें ऐसा अनुभव होता है, जैसा बारह-बारह वर्षों में भी नहीं हो पाता।

32. आशय यह कि जीवन के सादे कर्मो को, सादी क्रियाओं को परमेश्वर को अर्पण कर दो, तो इससे जीवन में सामर्थ्य आ जायेगा। मोक्ष हाथ लग जायेगा। कर्म करके और उसका फल न छोड़कर उसे ईश्वर को अर्पण कर देना- ऐसा यह राज-योग, कर्म-योग से भी एक कदम बढ़कर है।

कर्म-योग कहता है कि "कर्म करो, फल छोड़ो। फल की आशा मत रखो।" यहाँ कर्म-योग समाप्त हो गया। राज-योग कहता है, "कर्म-फलों को छोड़ो मत, बल्कि सब कर्म ईश्वर को अर्पण कर दो। वे फूल हैं, तुम्हें आगे ले जाने वाले साधन हैं, उन्हें उस मूर्ति पर चढ़ा दो।"

एक ओर से कर्म और दूसरी ओर से भक्ति जोड़कर जीवन को सुंदर बनाते चलो। फलों को त्यागो मत। उन्हें फेंकना नहीं, बल्कि भगवान से जोड़ देना है। कर्म-योग में जो फल तोड़ दिया, उसे राज-योग में जोड़ दिया जाता है। बोने और फेंक देने में फर्क है। बोया हुआ थोड़ा भी अनंतगुना होकर मिलता है। फेंका हुआ यों ही नष्ट हो जाता है। जो कर्म ईश्वर को अर्पण किया गया है, उसे बोया हुआ समझो। उससे जीवन में अपार आनंद भर जायेगा, अपार पवित्रता आ जायेगी।

रविवार, 17-4-32

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः