गागरि नागरि लै पनघट तैं -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग जैतश्री


गागरि नागरि लै पनघट तैं, चली घरहिं कौं आवै।
ग्रीवा डोलति, लोचन लोलति, हरि के चितहिं चुरावै।।
ठठकति चलै, मटकि मुख मोरै, बंकट भौंह चलावै।
मनहुँ काम-सेना अँग-सोभा, अंचल धुज फहरावै।।
गति गयंद, कुच कुंभ, किंकिनी मनहुँ घंट झहनावै।
मोतिनि हार जलाजल मानौ, खुभी दंत झलकावै।।
चंदक मनहुँ महाउत मुख पर, अंकुस बेसरि लावै।
रोमावली सूंड तिरनी लौं, नाभि-सरोवर आवै।।
पग जेहरि जंजीरनि जकरयौ, यह उपमा कछु भावै।
घट-जल झलकि कपोलनि कनिका, मानौ मदहिं चुवावै।।
बेनो डालति दुहूँ नितंबनि, मानहुँ पुच्‍छ हलावै।
गज-सरदार सूर कौ स्‍वामी, देखि देखि सुख पावै।।1439।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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