गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 1
तीर्थ राज ने कहा- देवदेव ! मैं आपकी सेवा में इसलिये आया हूँ कि आपने तो मुझे ‘तीर्थराज’ बनाया और समस्त तीर्थों ने मुझे भेंट दी, किंतु मथुरा मण्डल के तीर्थ मेरे पास नहीं आये; उन पमादी व्रज तीर्थों ने मेरा तिरस्कार किया है। अत: यह बात आपसे कहने के लिये मैं आपके मन्दिर में आया हूँ। श्री भगवान बोले- मैंने तुम्हें धरती के सब तीर्थों का राजा- ‘तीर्थराज’ अवश्य बनाया है; किंतु अपने घर का भी राजा तुम्हें ही बना दिया हो, ऐसी बात तो नहीं हुई है! फिर तुम तो मेरे गृह पर भी अधिकार जमाने की इच्छा लेकर प्रमत्त पुरुष के समान बात कैसे कर रहे हो ? तीर्थराज ! तुम अपने घर जाओ और मेरा यह शुभ वचन सुन लो। मथुरा मण्डल मेरा साक्षात परात्पर धाम है, त्रिलोकी से परे है। उस दिव्यधाम का प्रलय काल में भी संहार नहीं होता। सन्नन्द कहते हैं- यह सुनकर तीर्थ राज बड़े विस्मित हुए। उनका सारा अभिमान गल गया। फिर वहाँ से आकर उन्होंने मथुरा के व्रज मण्ड्ल का पूजन और उसकी परिक्रमा करके अपने स्थान को पदार्पण किया। पृथ्वी का मानभंग करने के लिये यह व्रज मण्डल पहले दिखाया गया था। मैंने ये सारी बातें तुम्हारे सामने कहीं, अब और क्या सुनना चाहते हो। नन्द जी ने पूछा- गोपेश्वर ! किसने पहले पृथ्वी का मानभंग करने के लिये इस व्रज मण्डल को दिखलाया था, यह मुझे बताइये। सन्नन्द ने कहा- इसी वाराहकल्प में पहले श्री हरि ने वराहरूप धारण करके अपनी दाढ़ पर उठाकर रसातल से पृथ्वी का उद्धार किया था। उस समय उन प्रभु की बड़ी शोभा हुई थी। जल में जाते हुए उन वराहरूपधारी भगवान रमानाथ जनार्दन से उनकी दृष्टा के अग्रभाग पर शोभित हुई पृथ्वी बोली। पृथ्वी ने पूछा- प्रभो ! सारा विश्व पानी से भरा दिखायी देता है। अत: बताइये, आप किस स्थल पर मेरी स्थापना करेंगे? भगवान वराह बोले- जब वृक्ष दिखायी देने लगें और जल में उद्वेग का भाव प्रकट हो, तब उसी स्थान पर तुम्हारी स्थापना होगी। तुम वृक्षों को देखती चलो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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