गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 62
मुने ! जैसे भागवत के अध्ययन से दूसरे शास्त्रों में आसक्ति नहीं होती, उसी प्रकार इसके स्वाध्याय से भी कहीं अन्यत्र आसक्ति नहीं रहती है। अत: महर्षियों ! भक्तों का दु:ख हर लेने वाले परमात्मा श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का अपने कल्याण के लिए भजन करें। श्रीगर्गजी कहते हैं- शौनक आदि मुनियों ने इस प्रकार श्रीहरि के चरित्र को सुनकर प्रसन्नचित्त हो सूतपुत्र उग्रश्रवा की भूरि-भूरि प्रशंसा की। करुणानिधे ! नारायण ! मैं संसारसागर में डूबकर अत्यंत दयनीय एवं दु:खी हो गया हूँ। कालरूपी ग्राहने मेरे अंग अंग को जकड़ लिया है। आप मेरा उद्धार कीजिये, आपको नमस्कार है। साधुशिरोमणि ! गुरुदेव ! आप अनाथों में बल्लभ हैं, हम लोगों पर अनुग्रह कीजिये। जैसे जगदीश्वर तीनों लोगों को अभय देते हैं, उसी प्रकार आप मुझे भी अनुग्रह प्रदान करें। श्रीगुरुदेव की कृपा और श्रीमदनमोहनजी की सेवा के पुण्य से जैसा मेरी वाणी से बन सका है, वैसा श्रीहरि का चरित्र मैंने कहा है। वाल्मीकि आदि तथा वेदव्यास आदि महर्षियों ! आप मेरी इस तुच्छ कविता पर दृष्टिपात करें और मेरे अपराध को क्षमा कर दें। जो व्रज के पालक, नूतन जलधर के समान श्याम रंग वाले, देवताओं के स्वामी, भक्तों की पीड़ा दूर करने वाले तथा परमार्थस्वरूप हैं, उन अनन्तदेव श्रीराधावल्लभ माधव श्रीकृष्ण को मैं मस्तक झुकाकर मन से और भक्तिभाव से प्रणाम करता हूं[1]। मेरे आत्मा श्रीकृष्ण के इस चरित्र मेरु में सत्ताईस सौ सत्तासी श्लोक हैं, जिसमें उनके लीला चरित्रों का गान किया गया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमाधवं व्रजपतिं नवमेघगात्रं राधापतिं सुरपतिं मुरलीधरं च ।भक्तार्तिहं च परमार्थमनन्तदेवं कृष्णं नमामि मनसा शिरसा च भक्त्या ।।-(अ0 62 ।52)
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