गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 57
उस महान यज्ञ के अवसर पर श्रीकृष्णपुरी द्वारका भूतल पर उसी तरह सुशोभित हुई, जैसे स्वर्ग में अमरावतीपुरी। उस समय मागध, सूत, बन्दीजन, गायक और वारांगनाएँ राजद्वार पर आयीं। पिर तो मृदंग, वीण, मुरयष्टि, वेणु, ताल, शंख, आनक और दुन्दुभि की ध्वनियों तथा संगीत, नृत्य एवं वाद्यगीतों के शब्दों से युक्त महान उत्सव होने लगा। वारांगनाएँ मधुर कण्ठ से गाने लगीं, सुन्दर तालों के साथ नृत्य करने लगीं। संगीत और गीत के अक्षरों के साथ सामदेव के गीत गूंज उठे। नर्तकियां अपने कुसुम्भ रंग के वस्त्र हिलाती हुई संगीत और नृत्य के साथ सब ओर प्रकाशित हो उठीं। उस उत्सव में जो बन्दीजन, मागध और गायक आये थे, उन्हें अपने निकट आने पर राजा ने बहुत सा सुवर्ण और रत्न दिये तथा जो अप्सराएँ आयीं थीं, उनको भी बहुमूल्य पुरस्कार समर्पित किया। सूतों, मागधों और समस्त बंदीजनों को भी अश्वमेध से प्रसन्न हुए राजा ने बहुत धन दिया। जैसे बादल पानी बरसाता है, उस तरह महाराज उग्रसेन धन की वृष्टि कर रहे थे। तत्पश्चात यादवराज भूपालशिरोमणि उग्रसेन ने अपने यहाँ आये हुए प्रत्येक राजा को एक लाख घोड़े, एक हजार हाथी, सौ-सौ शिबिकाएँ, कुण्डल, कडे़ और तीस भार सुवर्ण सानन्द भेंट किये। इससे दूना उपहार महाराज ने गद आदि समस्त यादवों तथा नन्द आदि गोपों को दिया। यशोदा आदि गोपांगनाओं, देवकी आदि यदुकुल की स्त्रियों तथा रुक्मिणी और राधिका आदि श्रीहरि की पटरानियों को भी राजा ने बहुत से दिव्य वस्त्र और अलंकार देकर सबको संतुष्ट किया। अन्त में राजा ने पिर प्रसन्न होकर मुझ गर्गाचार्य को सौ ग्राम दिये। वह बाद मैंने क्रमश: वहाँ के ब्राह्मणों को बांट दिया। इसके बाद राजा ने श्रीकृष्ण और बलभद्र का वस्त्र, आभूषण, तिलक, पुष्पहार और नीराजना आदि उपचारों से पूजन किया। राजन ! तब श्रीकृष्ण हंसते हुए बोले- महाराज ! इस महायज्ञ में समर्थ होते हुए भी आपने मुझे कुछ नहीं दिया। यह सुनकर राजा बोले- जगदीश्वर ! माधव ! आप बलरामजी के साथ शीघ्र ही यथोक्त दक्षिणा ग्रहण कीजिये। -ऐसा कहकर हर्ष से उल्लसित और प्रेम से विह्वल हुए राजा ने राजसूय तथा अश्वमेध- दोनों यज्ञों का सारा फल श्रीकृष्ण के हाथ में दे दिया। उस समय द्वारका में जय-जयकार होने लगी। तत्काल संतुष्ट हुए समस्त देवता फूलों की वर्षा करने लगे। तदनन्तर समपूर्ण देवता प्रसन्न हो अपना-अपना भाग लेकर स्वर्गलोक को चले गये। इसी तरह राक्षस, दैत्य, दाढ़वाले पशु, पक्षी, वानर, बिल में रहने वाले सर्प आदि जीव, पर्वत, गौ, वृक्ष-समुदाय, नदियां, तीर्थ और समुद्र- सभी अपना-अपना भाग ले, संतुष्ट हो, अपने-अपने निवास स्थान को चले गये। जो-जो राजा वहाँ आये थे, वे सब दान-मान से पूजित हो, सेनाओं द्वारा भूतल को कम्पित करते हुए अपनी-अपनी राजधानी को लौट गये। राजन ! नन्द आदि समस्त गोप और यशोदा आदि व्रजांगनाएँ श्रीकृष्ण से पूजित हो उनके विरहजनित कष्ट का अनुभव करती हुई व्रज को चली गयीं। इस प्रकार यादवराज उग्रसेन श्रीहरि की कृपा से मनोरथ के दुस्तर महासागर को पार करके निश्चित हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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