गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 56
यज्ञकर्म में दीक्षित असिपत्रव्रतधारी राजा उग्रसेन स्नान करके रानी रुचिमती के साथ बड़ी शोभा पा रहे थे। वेदशास्त्रों मे विशारद व्यास और गर्ग आदि बीस हजार ब्राह्मण वह श्रेष्ठ यज्ञ करा रहे थे। नृपश्रेष्ठ ! अग्निकुण्ड में हाथी की सूंड़ के समान मोटी घृत की धारा गिर रही थी और ब्रह्मवादी मुनि उसे गिरवा रहे थे। श्रीकृष्ण की कृपा से उस यज्ञ में अग्निदेव को अजीर्ण हो गया। वे सबके सुनते हुए राजा से बोले- ‘मैं प्रसन्न हूं, मैं प्रसन्न हू। अब मुझे पशु प्रदान करो’। यज्ञसभा में अग्नि का यह वचन सुनकर मुनियों सहित यादवेन्द्र उग्रसेन ने सोने के यूप में सुवर्णमयी डोरी से बंधे हुए उस घोड़े से बोले- उग्रसेन ने कहा- हे अश्व ! तुम अग्निदेव की बात सुनों यज्ञ में घीसे तृप्त होने पर भी अग्निदेव तुझ विशुद्ध यज्ञपशु को अपना आहार बनायेंगे। राजा की बात सुनकर श्यामकर्ण अश्व ने प्रसन्न हो श्रीकृष्ण की ओर देखते और अपनी स्वीकृति सूचित करते हुए सिर हिलाया। तत्पश्चात घोडे़ के शरीर से एक ज्योति प्रकट हुई, जो सबके देखते-देखते मधुसूदन श्रीकृष्ण में समा गयी। इसके बाद घोडे़ का शरीर कर्पूर होकर गिर पड़ा। मानो भगवान शंकर के शरीर से विभूति झड़ गयी हो। उस अद्भुत कर्पूरराशि को देखकर और उसकी सुगन्ध से यज्ञशाला तथा द्वारकापुरी को सुवासित हुई जानकर वे व्यास आदि महर्षि अत्यंत हर्षित हो, यज्ञकर्म में संलग्न राजा से बोले- ‘नृपश्रेष्ठ ! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा यह उत्तम यज्ञ सफल हो गया। अब हम इस कर्पूर से ही हवन करेंगे और तुम भी करो’। -ऐसा कहकर समस्त ॠत्विजों ने उस यज्ञकुण्ड में उसी क्षण पहले यज्ञेश्वर के उद्देश्य से घनसार (कर्पूर) की आहुतियां दीं। राजा व्रजनाभ ! जहाँ चतुर्व्यूहरूपधारी साक्षात परमेश्वर परमात्मा श्रीकृष्ण अपने पुत्र और पौत्रों के साथ विराजमान थे, वहाँ कौन-सी वस्तु दुर्लभ थी ? उस यज्ञ में मैंने महेन्द्र से कहा- ‘ भगवन शक्र ! इस यज्ञ में कर्पूर की आरती ग्रहण कीजिये। आइये, राजा उग्रसेन की दी हुई इस आहुति को स्वीकार कीजिये, अब आगे कलियुग में यह दुर्लभ हो जायेगी। मेरी बात सुनकर इन्द्र ने मुस्कराते हुए कहा- महर्षियों ! ज्रब कौरव पाण्डव युद्ध में कौरवकुल का क्षय होगा और धर्मराज युधिष्ठिर हस्तिनापुर में उत्तम अश्वमेध यज्ञ करेंगे, उस समय ब्राह्मणों की दी हुई ऐसी आहुति मैं पुन: ग्रहण करूंगा। आप इसे दुर्लभ क्यों बता रहे हैं ?’ नृपश्रेष्ठ ! इन्द्र का यह वचन सुनकर सब मुनीश्वरों ने इसे सच माना और उस यज्ञ में सम्पूर्ण देवताओं के लिए आहुतियाँ दीं। दूसरे लोगों ने यह नहीं समझा कि इन्द्र ने क्या कहा है। ‘अग्नये स्वाहा’- इस मंत्र से सभी देवताओं के लिए ब्राह्मणों ने आहुतियाँ दीं। उस कर्पूर के होम से भी समस्त चराचर विश्व प्रसन्न हो गया। राजा उग्रसेन उस महान यज्ञ में उॠण हो गये। तदन्तर श्रेष्ठ ब्राह्मणों, श्रीकृष्ण आदि यादवों तथा अन्य भूपालों के साथ महाराज उग्रसेन ने यज्ञ की समाप्ति पर पिण्डारक तीर्थ में अवभूथ स्नान किया। वेदोक्त विधि से पत्नी सहित स्नान करके, रेशमी वस्त्र धारण कर राजा उसी प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे दक्षिणा के साथ यज्ञ देवता सुशोभित होते हैं। उस समय देवताओं तथा मनुष्यों की दुन्दुभियाँ बज उठीं। सब देवता राजा उग्रसेन के ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे। इसके बाद स्वधा पान कराकर और पुरोडासका प्राशन करवाकर व्यासजी ने सब लोगों को क्रमश: यज्ञशेष पुरोडास का प्रसाद बांटा। गाजे-बाजे के साथ बन्दीजनों ने प्रसन्नतापूर्वक राजा उग्रसेन की स्तुति की। पिर देवकी आदि स्त्रियों ने उनकी आरती उतारी। आरती के बाद प्रसन्न हुए महाराज ने उन सब स्त्रियों को नाना प्रकार के रत्न, वस्त्र और अलंकार दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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