गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 48
श्रीगर्गजी कहते हैं– उस पत्र को बांचकर वे शत्रुभूत कौरव क्रुद्ध हो उठे। उन मानियों के नेत्र लाल हो गए और वे परस्पर कहने लगे । कौरव बोले– अहो ! इन धृष्ट यादवों ने घोड़े के भाल पत्र में क्या लिख रखा है ? क्या यादवों के सामने कोई राजा ही नहीं है ? पूर्वकाल में अपने राजसूय यज्ञ में हमने जिन यादवों को परास्त किया है, वे ही मूर्ख अब फिर अश्वमेध करने चले हैं। इसलिए हम इन सबको जीतेंगे। घोड़े को कदापि वापस नहीं देंगे। यादवों को जीतने के पश्चात् हम लोग स्वयं अश्वमेध यज्ञ करेंगे। कौन है उग्रसेन ? क्या है कृष्ण ? और वह घोड़े की रक्षा करने वाला भी कौन है ? समस्त यादवों के साथ आकर ये लोग हमारे सामने क्या पौरूष दिखाएंगे ? कृष्ण आदि समस्त यदुवंशी जरासंध के डर से मथुरापुरी छोड़कर समुद्र की शरण में गए हैं। वे हम लोगों के ही भय से युद्ध छोड़ कर भाग खड़े हुए हैं। पहले हम लोगों ने कृपा करके इन यादवों को राज्य दे दिया और अब वे कृतघ्न यादव अपने को चक्रवर्ती मानने लगे हैं। पाण्डवों का मान रखने के लिए हमने पहले यादवों को नहीं मारा था, किंतु वे पाण्डव भी हमारे शत्रु ही हैं। अत: हमने उन्हें देश निकाला दे दिया है। इन भागे हुए यादवों को आज युद्ध में पराजित करके हम उग्रसेन को सहसा उनके चक्रवर्तीपन का मजा चखाएंगे । राजन् ! वे समस्त श्रीकृष्ण विमुख कौरव लक्ष्मी और राजवैभव के घमंड में आकर ऐसी बात कहने लगे। फिर सबने शीघ्र ही नाना प्रकार के अश्त्र शस्त्र ले लिए और उस घोड़े को नगर में प्रवेश कराया। इसके बाद वे वहीं ठहर गए। अश्व के दूर चले जाने पर श्रीकृष्ण की प्रेरणा से साम्ब तुरंत ही मार्ग प्रदान करने वाली यमुना नदी को पार करके दस अक्षौहिणी सेना पीछे लिए, कवच बांध, अक्रूर और युयुधान आदि के साथ रोषपूर्वक हस्तिनापुर के निकट आ पहुँचे। उन्होंने देखा– घोड़ा चुराने वाले कौरव सामने खड़े हैं। श्रीकृष्ण ही जिनके आराध्यदेव हैं तथा जो लोक और परलोक दोनों पर विजय पाने के इच्छुक हैं, उन बलवान यादवों ने कौरवों को देखकर उन सबको तिनके के समान समझते हुए कहा- अहो ! किसने हमारे घोड़े को बांधा है ? किसके ऊपर आज यमराज प्रसन्न हुए हैं और कौन युद्धस्थल में नाराचों द्वारा बड़ी भारी पीड़ा प्राप्त करने के लिए उत्सुक है ? अहो ! जिनके चरणों में देवता और दानव भी वंदना करते हैं, जो पहले राजसूय यज्ञ कर चुके हैं, जिनकी समानता करने वाला संसार में दूसरा कोई नहीं है तथा जो नरेशों के भी ईश्वर हैं, उन वृष्णिकुल तिलक चक्रवर्ती राजाधिराज उग्रसेन को क्या वे राजा नहीं जानते, जो अपने ही विनाश के लिए घोड़े को पकड़ रहे हैं ? हेमांगद, इंद्रनील, बक, भीषण और बल्वल– इन समस्त नरेशों को हमने संग्राम भूमि में पराजित किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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