गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 45
देव देव ! व्रजराज नंदन ! हरे ! हमें पूर्णरूप से दर्शन दीजिए, जो सब दु:खों को हर लेने वाला है। हम आपकी क्रीत दासियाँ हैं। आप पूर्ववत हमारी ओर देखकर हमें अपनाइये। जिन्होंने एकार्णव के जल से इस भू मण्डल का उद्धार करने के लिए परम उत्तम संपूर्ण यज्ञ वाराह स्वरूप धारण किया था और अपनी तीखी दाढ़ से हिरण्याक्ष नामक दैत्य को विदीर्ण कर डाला था, वे भगवान श्रीहरि ही हम सबका उद्धार करने में समर्थ हों। जिन्होंने वेन की दाहिनी बांह से स्वेच्छापूर्वक पृथुरूप में प्रकट हो देवताओं सहित मनु की सम्मति से इस पृथ्वी का दोहन किया और मत्स्य रूप धारण करके वेदों की रक्षा की, वे ही भगवान श्रीकृष्ण इस अशुभ वेला में हम गोपियों के लिए शरणदाता हों। अहो ! जिन परम प्रभु ने समुद्र मंथन के समय कच्छप रूप धारण करके बड़े भारी पर्वत मन्दराचल को अपनी पीठ पर ढोया था और नृसिंह रूप धारण करके अपने भक्त के प्राण लेने को उद्यत हुए असुर हिरण्यकशिपु को प्राणदण्ड से दण्डित किया, वे ही श्रीहरि हम सबको परम आश्रय देने वाले हों। जिन्होंने राजा बलि को छला– तीन पग भूमि के ब्याज से त्रिलोकी का राज्य छीन लिया तथा देवद्रोहियों का दलन करके मुनिजनों पर अनुग्रह करते हुए भूमण्डल पर विचरण किया, जो युदुकुल तिलक बलरामजी के रूप में प्रकट हुए हैं और जिन्होंने उसी रूप से कौरवपुरी हस्तिनापुर को हल से खींचते हुए उसे गंगाजी में डुबा देने का विचार किया था, वे भगवान श्रीकृष्ण सर्वथा हमारे रक्षक हों। जिन्होंने गिरिराज गोवर्धन को उठाकर व्रज के पशुओं का उद्धार किया तथा व्रजपति नंदराय की, अन्यान्य गोपजनों की तथा हम गोपांगनाओं की भी रक्षा की थी, फिर आगे चल कर जिन्होंने कौरवों द्वारा उत्पन्न किए गए संकट से द्रुपद राजकुमारी पांचाली के प्राण बचाए– भरी सभा में उसकी लज्जा रखी, उन्हीं के चरणारविंदों में हमारा सदा अनन्य अनुराग बना रहे। जिन परम पुरुष यदुवंश विभूषण ने समस्त पाण्डवों की विष से, लाक्षागृह की महा भयंकर अग्नि से, बड़े–बड़े अस्त्रों से तथा अनेकानेक विपत्तियों से पूर्णत: रक्षा की, उन्हीं के चरण हम सबके लिए शरण हों। हम उस बालरूपिणी देवमूर्ति की वंदना करती हैं, जो वन माला, मोरपंख तथा परम सुंदर केशपाश धारण करती है, वृंदावन के फूलों के आभूषण पहनती है, शिला से उत्पन्न अगुरु एवं कस्तूरी आदि के द्वारा रचित विचित्र तिलक से अलंकृत होती है, सदा भक्तजनों के मन को अपनी ओर खींचती रहती है, लीलामृत रसिक है, जिसकी आकृति लावण्य लक्ष्मीमयी है तथा अंग कान्ति बाल तमाल के समान नीली है।[1] श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन ! यों रोती हुई गोप सुंदरियों के इस प्रकार भक्तिपूर्वक आह्वान करने पर रेवतीरमण बलराम के छोटे भाई श्यामसुंदर श्रीकृष्ण उनके बीच में प्रकट हो गए । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गोप्य ऊचु :
अधरबिम्बविडम्बितविद्रुमं मधुरवेणुनिनादविनोदितम्। कमलकोमलनीलमुखाम्बुजं तमपि गोपकुमारमुपास्महे।।
श्यामलं विपिनकेलिलम्पटं कोमलं कमलपत्रलोचनम्। कामदं व्रजविलासिनीदृशां शीतलं मतिहरं भजामहे।।
तं विसंचलितलोचनांचलं साभिकुडालितकोमलाधरम्। वंशवल्गितकरांगलीमुखं वेणुनादरसिकं भजामहे।।
ईषदकुंरितदंतकुड्मलं भूषणं भुवनमंगलश्रियम्। घोषसौरभमनोहरं हरेर्वेषमेव मृगयामहे वयम्।।
अस्तु नित्यमरविन्मदलोचन: श्रेयसे हि तु सुरार्चिताकृति:। यस्य पादसरसीरुहामृतं सेव्यमानमनिशं मुनीश्वरै:।।
गोपकै रचितमल्लसंगरं संगरे जितविदग्धयौवनम्। चिन्तयामि मनसा सदैव तं दैवतं निखिलयोगिनामपि।।
उल्लसन्नवपयोदमेव तं फुल्लतामरसलोचनाञ्चलम्।
बल्लवीहृदयपश्यतोहरं पल्लवाधरमुपास्महे वयम्।।
यद्धनंजयरथस्य मण्डनं खण्डनं तदपि संचितैनसाम्।
जीवनं श्रुतिगिरां सदामलं श्यामलं मनसि मेऽस्तु तन्मह:।।
गोपिकास्तनविलोललोचनप्रान्तलोचनपरंपरावृतम्। बालकेलिरसलालसम्भ्रमं माधवं तमनिशं विभावये।।
नीलकण्ठकृतपिच्छशेखरं नीलमेघतुलितांवैभवम्। नीलपंकजपलाशलोचनं नीलकुन्तलधरं भजामहे।।
घोषयोषिदनुगीतवैभवं कोमलस्वरितवेणुनिस्वनम्। सारभूतमभिरामसंपदां धाम तामरसलोचनं भजे।।
मोहनं मनसि शार्ड्गिंणं परं निर्गतं किल विहाय मानिनी:। नारदादिमुनिभिश्च सेवितं नन्दगोपतनयं भजामहे।।
श्रीहरिस्तु रणीभियावृतो यस्तु वै जयति रासमण्डले। राधया सह वने च दु:खितास्तं प्रियं हि मृगयामहे वयम्।।
देवदेव व्रजराजनन्दन देहि दर्शनमंल च नो हरे।
सर्वदु:खहरणं च पूर्ववत् संनिरीक्ष्य तव शुल्कदासिका:।।
क्षितितलोद्धारणाय दधार य: सकलयज्ञवराहवपु: परम्। दितिसुतं विददार च दंष्ट्रया स तु सदोद्धरणाय क्षमोऽस्तु न:।।
मनुमपाद् रुचिजो दिविजै: सह वसु दुदोह धरामपि य: पृथु:। श्रुतिमपाद्धृतमत्स्यवपु: परं स शरणं किल नोऽस्त्वशुभक्षणे।।
अवहदब्धिमहो गिरिमूर्जितं कमठरूपधर: परमस्तु य:। असुहरं नृहरि: समदण्डयत् स च हरि: परमं शरणं च न:।।
नृपबलिं छलयन् दलयन्नरीन् मुनिजनाननुगृह्य चचार य:। कुरुपुरं च हलेन विकर्षयन् यदुवर: स गतिर्मम सर्वथा।।
व्रजपशून् गिरिराजमथोद्धरन् व्रजपगोपजनं च जुगोप य:। द्रुपदराजसुतां करुकश्मलाद् भवतु तच्चरणाब्जरतिश्च न:।।
विषमहाग्निमहास्त्रविपद्गणात् सकलपाण्डुसुता: परिरक्षिता:। यदुवरेण परेण च येन वै भवतु तच्चरण: शरणं च न:।।
मालां बर्हिमनोज्ञकुन्तलभरां व्यप्रसूनोषितां शैलेयागुरक्लृप्तचित्रतिलकां शश्वन्मनोहारिणीम्।
लीलावेणुरवामृतैकरसिकां लावण्यलक्ष्मीमयीं बालां बालतमालनीलवपुषं वन्दामहे देवताम्।।
( अध्याय 45। 1 – 21 )
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