गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 43
किंतु उसे भी रूपवती न मानकर इन्होंने पुन: बहुत से विवाह किए। सोलह हजार स्त्रियाँ घर में ला बिठाईं। किंतु सखियों ! उन सबको भी मन के अनुकूल रूपवती न पाकर बारंबार शोक करते हुए श्यामसुंदर श्रीकृष्ण पुन: देखने के लिए व्रज में आए हैं। अरी वीर ! सर्वद्रष्टा परमेश्वर हमारे रूप देख कर उसी तरह प्रसन्न हुए हैं, जैसे पहले रास में हुआ करते थे। इसलिए हम लोग त्रिभुवन की समस्त सुंदरियों में श्रेष्ठ, सुलोचना, चंद्रमुखी तथा नित्य सुस्थिर यौवना मानी गई हैं। हमारे समान रूपवती स्वर्गलोक की देवांगनाएँ भी नहीं हैं, क्योंकि हमने अपने कटाक्षों द्वारा श्री कृष्ण को शीघ्र ही वश में कर लिया और कामुक बना दिया। अहो ! जिस हंस ने पहले मोती चुग लिए हैं, वहीं दु:खपूर्वक दूसरी वस्तु कैसे खाएगा ? हर जगह मोती नहीं सुलभ होते। वे तो केवल मानसरोवर में ही मिलते हैं, उसी प्रकार भूतल पर सर्वत्र सुंदरी स्त्रियाँ नहीं होतीं। यदि कहीं हैं तो इस व्रज में ही हैं । श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! जगदीश्वर श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे उन मानवती गोप सुंदरियों का ऐसा कथन सुन कर श्रीराधा के साथ वहीं अन्तर्धान हो गए। नरेश्वर ! निर्धन मनुष्य भी धन पाकर अभिमान से फूल उठता है, फिर जिसको साक्षात नारायण प्राप्त हो गए, उसके लिए क्या कहना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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