गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 42
श्रीवत्सचिह्न एवं हारों से अत्यंत रुचिर दिखाई देता है, जिनके श्री अंगों की कांति नुतन मेघमाला के समान नील है, जो रेशमी पीताम्बर धारण करते हैं, जिनके विशाल भुजदण्ड हाती की सूंड के समान प्रतीत होते हैं, जो रत्नमय बाजूबंद और मणिमय कंगन धारण करते हैं, जिनके एक हाथ में दिव्यकमल है तथा दूसरे हाथ में दिव्य शंखकमल पर विराजित राजहंस के समान शोभा पाता है, जो शंखाकार ग्रीवा से सुंदर दिखाई देते हैं, जिनके कपोलों का मध्यभाग अत्यंत शोभाशाली है, चिबुक (ठोढ़ी) का भाग गहरा है और दांत कुंदन के समान चमकीले हैं, पके हुए बिम्बफल को अपनी अरुणिमा से लज्जित करने वाले अधरमन्द मुस्कान की छटा से छविमान हैं, नासिका तोते की चोंच के समान नुकीली है और जिनके वचनों से मानो अमृत झरता रहता है। कटाक्ष अत्यंत चंचल हैं, नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान मनोहर हैं, जिनकी प्रत्येक लीला उनके प्रति प्रेम की वृद्धि करने वाली है और भ्रूमंडल मानो मंद–मुस्कान रूपी प्रत्यंचा से युक्त कामदेव के धनुष हैं, जिनके मस्तक पर धारित रत्नमय किरीट विद्युत की छटा को विलज्जित कर रहा है तथा जो मार्तण्ड मण्डल के समान कान्तिमान कुण्डलों से मण्डित हैं, जिनके अधर पर बंशी विराजमान है, काली–काली घुंघराली अलकें चंचल भुजंग के समान जान पड़ती हैं, जिनका मुख सजल पद्मपत्र के समान स्वेद बिंदुओं से विलसित है, जो करोड़ों कामदेवों के घनीभूत सौंदर्याभिमान को हर लेने वाले हैं, जिनका श्रीविग्रह पतला है तथा जो वृंदावन में वंशीवट के समीप विचर रहे हैं, उन राधावल्लभ नटवर नंदकिशोर का तुम सब प्रकार से भजन सेवन करो ।[1] जिनके लाल–लाल नखचंद्रों से युक्त चरणारविंद की शोभा कुछ कुछ लाल दिखाई देती है, मंजीर और नूपुरों की झंकार के साथ जिनके कटिप्रदेश की किंकिणी खनकती रहती है, घुंघुरू और सोने के कंगनों के मधुर शब्द से शोभित होने वाली तथा तरुपुंजों के निकुंज में विराजमान उन श्रीराधारानी का मैं ध्यान करता हूँ। श्रीराधा के शरीर पर नीले रंग के वस्त्र शोभा पाते हैं,जो सुनहरे किनारों के कारण सूर्य की किरणों के समान चमक रहे हैं। यमुना तट पर प्रवाहित होने वाली वायु की गति से वे वस्त्र चंचल हो गए हैं– उड़ रहे हैं और अत्यंत सूक्ष्म (महीन) होने के कारण बहुत ही ललित (सुंदर) दीख पड़ते हैं। ऐसे वस्त्रों से सुशोभित, अतिशय गौरवर्णा एवं मनोहर मंद हास वाली रासेश्वरी श्रीराधा का भजन करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीपद्मरागनखदीप्तिपदारविंदं झंकारनूपुरधरं स्फुरदंदेशम्। कुर्वन्तमेव तु पदारुणभूमिदेशं श्रीमत्परागसुरुचारमितस्ततस्तु।।
लक्ष्मीकराब्जपरिलालितजानुदेशं रम्भोरुपीतवसनं तु कृशोदराभम्। रोमावलिभ्रमरनाभिसरस्त्रिरखं काञ्चीधरं भृगुपदं मणिकौस्तुभाढ्यम्।।
श्रीवत्सहाररुचिरं नवमेघनीलं पीताम्बरं करिकरस्फुटबाहुदण्डम्। रत्नांगदं च मणिकंकणपद्महस्तं श्रीराजहंसवरकन्धरशोभमानम्।।
श्रीकम्बुकण्ठललितं विलसत्कपोलं मध्यं तु निम्नचिबुकं किल कुन्ददन्तम्। बिम्बाधरं स्मतलसच्छुकचञ्चुनासं पीयूषकल्पवचनं प्रचलत्कटाक्षम्।।
श्रीपुण्डरीकदलनेत्रमनंगलीलं भ्रूमण्डलस्मितगुणावृतकामचापम्। विद्युच्छटोच्छलितरत्नकिरीटकोटिं मार्तण्डमण्डलविकुण्डलमण्डिताभम्।।
वंशीधरं त्वहिविलोलगुडालकाढ्यं राधापतिं सजलपद्ममुखं चलंतम्। कंदर्पकोटिघनमानहरं कृशांग वंशीवटे नटवरं भज सर्वथा त्वम्।। (अध्याय 42। 42 -47 )
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