गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 40
नूतन जलधर के समान उसकी श्याम कांति थी। वे किशोर अवस्था के बालक से प्रतीत होते थे। उनके नेत्र शरत्काल के प्रभात में खिले हुए कमलों की कांति को छीन लेते थे। उनका मुख अपनी छवि से शरत्पूर्णिमा के शोभा संपन्न पूर्ण चंद्रमंडल का छबि को आच्छादित किए लेता था। करोड़ों कामदेवों का लावण्य उनके लावण्य में विलीन हो गया था। लीला–जनित आनंद से वे और भी सुंदर प्रतीत होते थे। अधरों पर मुस्कराहट और हाथों में मुरली लिए द्विभुज श्रीकृष्ण अत्यंत मनोहर दिखाई देते थे। विद्युत की सी पीतकान्ति से सुशोभित वस्त्र तथा मीना कार कुण्डल धारण किए भगवान श्रीहरि सारा अंग चंदन से अनुलिप्त तथा कौस्तुभमणि से दीप्तिमान था। घुटनों तक लटकती हुई मालती सुमनों की माला और वनमाला से वे विभूषित थे। मस्तक पर मोरपंख का मुकुट तथा उत्तम रत्नों का बना हुआ किरीट जगमगा रहा था। ओठ परिपक्व बिम्बाफल से भी अधिक लाल थे तथा ऊँची नासिका से उनका मुखमंडल अद्भुत शोभा पा रहा था। राजेंद्र ! श्रीकृष्ण के ऐसे रूपामृत का, आनंद में डूबे हुए व्रजवासी नेत्रों से पान कर रहे थे, मानो साधारण मानव वसुधा पर सुलभ हुई सुधा का पान कर रहे हों ।[1] राजन् ! तत्पश्चात् प्रेमरस में डूबे हुए नंदरायजी प्रसन्नता के साथ अनिरुद्ध को और साम्ब आदि समस्त यादवों को शुभाशीर्वाद दिया। इसके बाद समस्त यादवों और पुत्र–पौत्रों से घिरे हुए महाबुद्धिमान नंदजी अपनी पुरी में प्रविष्ट हुए। उस समय उनके मन का संपूर्ण दु:ख दूर हो गया था। द्वार पर पहुँचते ही श्रीकृष्ण रथ से कूद पड़े और साम्ब आदि के साथ माता को आनंद प्रदान करने के साथ माता को आनंद प्रदान करते हुए तुरंत उनके भवन में जा पहुँचे। माता यशोदा घर के द्वार तक आ गई थीं। वे रो रही थीं और उनका गला रुंध गया था। उस दशा में उन्हें देख कर श्रीकृष्ण फूट–फूट कर रोते हुए माता के चरणों में पड़ गए। माता यशोदा ने अपने प्राणों से भी प्यारे पुत्र को छाती से लगाकर उन्हें गद्गदकण्ठ से आशीर्वाद दिया। नंद, उपनंद, छहों वृषभानु तथा वृषभानुवर– ये सब लोग श्रीकृष्ण को देखने के लिए आए। यादवों सहित श्रीकृष्ण ने वहाँ पधारे हुए गोपों से विधिपूर्वक मिलकर उन सबका समादर किया। उन सबने प्रसन्न मुख होकर श्रीकृष्ण की कुशल पूछी और भगवान श्रीकृष्ण ने भी उन सबका उत्तम कुशल समाचार पूछा । नपेश्वर ! तत्पश्चात् वृंदावन में यमुना के तटपर महात्मा अनिरुद्ध की सेना के सारे शिविर लग गए। अनिरुद्ध, साम्ब और उद्धव आदि ने तो शिविरों में ही निवास किया, किंतु भगवान श्रीकृष्ण नंदनगर में ही ठहरे। राजन् ! श्रीकृष्ण सहित नंदरायजी ने वहाँ पधारे हुए समस्त यादव सैनिकों को भोजन दिया और पशुओं के लिए भी चारे–दाने आदि का प्रबंध कर दिया । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नवीननीरदश्यां कशोरवयसं शिशुम्। शरत्प्रभातकमलकान्तिमोचनलोचनम्।।
शरत्पूर्णेन्दुशोभाढ्यं शोभास्वाच्छादनाननम्। कोटिमन्थलावण्यं लीलानन्दितसुन्दरम्।।
सस्मितं मुरलीहस्तं द्विभुजं ह्यतिसुंदरम्। तड़िद्वस्त्रधरं देवं मत्स्य कुण्डलिनं हरिम्।।
चन्दनोक्षितसर्वांग कौस्तुभेन विराजितम्। आजानुमालतीमालावनमालाविभुषितम्।।
मयूरपिच्छचूडं च सद् रत्नमुकुटोज्ज्वलम्। पक्वबिम्बाधिकोष्ठं च नासिकोन्नतशोभनम्।।
एवं कृष्णस्य राजेंद्र रूपं नेत्रैर्व्रजौकस:। पपुरानंदसमग्रा: पीयूषं मानवा इव।।
( अ॰ 40। 32 – 37 )
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |