गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 39
शंकर ने कहा– देवदेव ! जगन्नाथ ! राधिका वल्लभ ! जगन्मय ! करुणाकर ! मैं निर्लज्ज हूं, अपराधी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। देव ! क्या आप नहीं जानते, मैं आपके सामने क्या कहूंगा ? प्रभो ! आपकी माया से मोहित होकर मैं भक्त की रक्षा करने के लिए यहाँ आया था, आप मेरे इस सारे अपराध को क्षमा कर दीजिए। हरे ! मैं ही संपूर्ण जगत का शासक हूं, इस अभिमान से मैंने युद्धस्थल में, जिनके श्रीकृष्ण ही देवता हैं, उन शूरवीर वृष्णिवंशियों को मारा है। श्रीकृष्ण ! यही कारण है कि संत पुरुष परमवाञ्छित महान ऐश्वर्य को स्वयं छोड़कर आपके निर्भय चरणकमल का सदा चिंतन करते हैं। मनुष्यों को सुख और दु:ख तभी तक प्राप्त होते हैं, जब तक उनका मन श्रीकृष्ण में नहीं लगता है। श्रीकृष्ण में मन लग जाने पर वह दुर्जय भक्तियोग रूपी खड्ग प्राप्त होता है, जो मनुष्यों के कर्मरूपी वृक्षों का मूलोच्छेद कर डालता है। जो लोग मेरी भक्ति के बल से घमंड में आकर आप मेरे स्वामी यदुकुल तिलक का अपमान करते हैं, वे सब निश्चय ही नरक में जाएंगे ।[1] ऐसा कहकर भगवान शंकर चुप हो नेत्रों में आंसू भरकर भक्तिभाव से श्रीकृष्ण के युगल चरणारविंदों में दण्ड की भाँति प्रणत हो गए। भगवान श्रीकृष्ण ने रुद्रदेव को उठाकर अपने पास खड़ा किया और उन्हें आश्वासन देकर, मिलकर उनकी ओर सुधा भरी दृष्टि से देखा । तत्पश्चात् श्रीकृष्ण बोले– शिव ! सभी देवता अपने भक्त का पालन करते हैं। तुमने भी यदि भक्त का पालन किया तो इसमें कौन सा निंदित कर्म कर डाला ? तुम मेरे हृदय में हो और मैं तुम्हारे हृदय में। हम दोनों में कोई अंतर नहीं है। खोटी बुद्धि वाले मूढ़ पुरुष ही हम दोनों में अंतर या भेद देखते हैं। सदाशिव ! मेरे भक्त तुमको नमस्कार करते हैं और तुम्हारे भक्त मुझको। जो मेरी इस बात को नहीं मानते हैं, वे नरक में पड़ेंगे ।[2] ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने युद्धस्थल में मारे गए अपने पुत्र सुनंदन को अमृतवर्षिणी दृष्टि से देख कर जीवित कर दिया। तत्पश्चात् अनिरुद्ध के हृदय से शूल को धीरे–धीरे खींचा और उन्हें भी जीवनदान दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देव देव जगन्नाथ राधिकेश जगन्मय। पाहि पाहि कृपाकारिन्निस्त्रपं मां कृतागसम्।।
त्वं न जानासि किं देव कथयिष्यामि किं त्वहम्। भक्तस्य पालनं कर्तुं मायया तव मोहित:।।
अहमागतावान् देव त्वं सर्वं क्षन्तमर्हसि। शास्ताहं सर्वलोकस्य मानादिति मया हरे।।
मारिता: संगरे शूरा वृष्णय: कृष्णदेवता:। तस्मात् संत: स्वयं त्यक्तवा परमैश्वर्यमीप्सतम्।।
ध्यायन्ते सततं कृष्ण पादाब्जं ते निरापदम्। सुखं दुखं नृणां तावद् यावत्कृष्णे न मानसम्।।
कृष्णे मनसि संजातो भक्तिखड्गो दुरत्यय:। नराणां कर्मवृक्षाणां मूलच्छेदं करोति य:।।
मद्भक्तिबलदर्पिष्ठ मत्प्रभुं त्वां यदूत्तमम्। न मन्यन्ते च ते सर्वे यास्यन्ति निरयं ध्रुवम्।।
( अ॰ 39। 13 – 19 ) - ↑ ममासि हृदये त्वं तु भवतो हृदये ह्यहम्। आवयोरन्तरं नास्ति मूढ़ा: पश्यन्तिं दुर्धिय:।।
त्वां नमन्ति च मद्भक्तास्त्वद्भक्ता मां सदाशिव। ये न मन्यन्ति मद्वाक्यं यास्यन्ति नरकं च ते।।
( अ॰ 39। 23 – 24 )
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