गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 39
भगवान शंकर द्वारा श्रीकृष्ण का स्तवन, शिव और श्रीकृष्ण की एकता, श्रीकृष्ण द्वारा सुनंदन, अनिरुद्ध एवं अन्य सब यादवों को जीवनदान देना तथा बल्वल द्वारा यज्ञ संबंधी अश्व का लौटाया जाना श्रीगर्गजी कहते हैं– भगवान श्रीकृष्ण को वहाँ उपस्थित देख महादेवजी भयभीत एवं शंकितचित्त हो गए और धनुष तथा त्रिशूल आदि त्याग कर उन श्रीपति से भक्तिपूर्वक बोले । शंकर ने कहा– सच्चिदानंदस्वरूप सर्वत्र व्यापक विष्णुदेव ! मेरे अविनय को दूर कीजिए। मन को दबाइये और विषयों की मृग तृष्णा शांत कीजिए। प्राणियों के प्रति मेरे हृदय में दया का विस्तार कीजिए और मुझे संकार सागर से उबारिए। देवनदी गंगा जिनकी मकरंदराशि है, जिनका मनोहर सौरभ समूह सच्चिदानंदमय है तथा जो भवबंधन के भय एवं खेद का छेदन करने वाले हैं, श्रीपति के उन चरणारविंदों की मैं वंदना करता हूँ। प्रभो ! परमार्थ दृष्टि से आप में और मुझमें कोई भेद न होने पर भी मैं ही आपका हूं, आप मेरे नहीं हैं, क्योंकि समुद्र की ही तरंगें हुआ करती हैं, तरंगों का समुद्र कहीं नहीं होता। हो गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले ! हे पर्वत भेदी इंद्र के अनुज ! हे दानव कुल के शत्रु ! तथा हे सूर्य और चंद्रमा को नेत्रों के रूप में धारण करने वाले परमेश्वर ! आप प्रभु का दर्शन हो जाने पर क्या इस संसार का तिरस्कार नहीं हो जाता है ? परमेश्वर मैं भवताप से भीत हूँ और आप मत्स्य आदि अवतारों द्वारा अवतारी होकर वसुधा का पालन करते हैं, अत: मेरा भी पालन कीजिए। दामोदर ! गुणों के मंदिर ! सुंदर वदनारविंद ! गोविंद ! भवसागर को मथ डालने के लिए मंदराचल रूप श्रीकृष्ण ! आप मेरे बड़े भारी भय को भगाइये। नारायण ! करुणामय ! मैं आपके युगलचरणों की शरण लूं। यह छ: पदों वाली स्तुतिरूपिणी षट्पदी (भ्रमरी) मेरे मुखरूपी कमल में सदा निवास करे ।[1] भगवान शंकर के इस प्रकार स्तुति करने पर बलराम के छोटे भाई श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर अपने चरणों में झुके हुए चंद्रशेखर शिव से सारा अभिप्राय पूछा । श्रीकृष्ण बोले- शिव ! मेरे कुबुद्धि पुत्र ने तुम्हारा क्या अपराध किया था, जिससे तुमने युद्ध में उसे मार डाला और अनिरुद्ध को मूर्च्छित कर दिया ? किसलिए यदुकुल का विनाश किया ? तुम युद्धस्थल में आए ही क्यों ? और आये भी तो युद्ध क्यों करने लगे ? यह सब बात विस्तारपूर्वक मुझे बताओ । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ओम अविनयमपनय विष्णो दमय मन: शमय विष्यमृगतृष्णाम्। भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरत:।।
दव्यधुनीमकरन्दे परिमलपरिभोगसच्चिदानंदे। श्रीपतिपदारविंदे भवभयखेदच्छिदे वन्दे।।
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम्। सामुद्रो हि तरंग क्वचन समुद्रो न तारंग।।
उद्धतनग नगभिदनुज दनुजकुलामित्र मित्रशशिदृष्टे। दुष्टे भवति प्रभवति न भवति किं भवतिरस्कार:।।
मत्स्यादिभिरवतारैरवतारवतावता सदा वसुधाम्। परमेश्वर परिपालयो भवता भवतापभीतोअहम्।।
दामोदर गुणमंदर सुंदरवदनारविंद गोविंद। भवजलधिमथनमंदर परं दरमपन्य त्वं मे।।
नारायण करुणामय शरणं करवाणि तावकौ चरणौ। इति षट्पदी मदीये वदनसरोजे सदा वसतु।।
(अ ॰ 39 / 2 - 8 )
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