गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 35
अनिरुद्ध बोले– कौन प्राणी किसके द्वारा मारा जाता है और कौन किससे रक्षित होता है। सदा काल ही सबको मारता है और वही संकट से सबकी रक्षा करता है। मैं करूंगा, मैं करता हूं, संहर्ता हूँ और पालक भी मैं ही हूँ, जो ऐसी बात करता है वह काल से ही विनाश को प्राप्त होता है।[1] मैं तुमको नहीं जीत सकूँगा और तुम भी मुझे नहीं जीत सकोगे। विश्वात्मा कालरूपी जगदीश्वर ही तुमको और मुझको जीतेंगे। दानव ! न जाने वे काल पुरुष किसको जय अथवा पराजय देते हैं। मैं तो अपनी विजय के लिए उन काल देवता की ही मन से वंदना करता हूँ। अत: तुम भी अपने मन से काल को ही बलवानों में श्रेष्ठ समझो और मेरी बात मान कर अपने बड़े भारी अज्ञान को त्याग कर युद्ध करो । अनिरुद्ध की यह बात सुनकर बल्वल को आश्चर्य हुआ। उनके वचनों से संतोष प्राप्त करके उनसे कहा, ठीक उसी तरह जैसे वृत्रासुर ने देवराज इंद्र से वार्तालाप किया था । बल्वल बोला– यदुकुल तिलक ! इस भूतल पर कर्म ही प्रधान है, कर्म ही गुण और ईश्वर है। कर्म से ही लोगों को ऊँची और नीची स्थिति प्राप्त होती है। जैसे बछड़ा हजारों गायों के बीच में अपनी माता को ढूंढ लेता है उसी प्रकार जिसने शुभ या अशुभ कर्म किया है उसका वह कर्म विद्वान रहकर फल प्रदान के समय उसको खोज लेता है। अत: मैं अपने सुदृढ़ कर्म के द्वारा संग्राम भूमि में तुम पर विजय पाऊँगा। मैंने तो प्रतिज्ञा कर ली अब तुम तुरंत उसका प्रतिकार करो। अनिरुद्ध ने कहा– दैत्य ! तुम कर्म को प्रधान मानते हो, परंतु काल के बिना उसका कोई फल नहीं मिलता है ! जैसे भोजन बना देने पर भी उसकी प्राप्ति में विघ्न पड़ जाता है, पाक के विभिन्न प्रकार हैं। उसकी सिद्धि के लिए जो पाक का निर्माण किया जाता है वह बिना कर्ता के संभव नहीं होता अत: बहुत से विद्वान कर्म और काल की अपेक्षा कर्ता को ही श्रेष्ठ बताते हैं। वह कर्ता भगवान श्रीकृष्णचंद्र ही हैं। जो गोलोकधाम के स्वामी तथा परात्पर परमेश्वर हैं। उन्होंने ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि समस्त देवताओं की सृष्टि की है।[2] बल्वल बोला– श्री कृष्ण पौत्र ! तुम धन्य हो और अपने वचनों द्वारा ऋषियों का अनुकरण करते हो। तुम तीनों गुणों से अतीत हो। तथापि प्राणियों के लिए अपने स्वभाव का परित्याग दुष्कर है। यादवश्रेष्ठ अब सावधान होकर अपने ऊपर प्राप्त होने वाले मेरे इस प्राण संहारी बाणों को देखो और अपना मन युद्ध में ही लगाए रखो । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ क: केन हन्यते जन्तुस्तथा क: केन रक्ष्यते। हनिष्यति सदा कालस्तथा रक्षति दु:खत:।। अहं करोमि कर्ताहं हर्तां पालकोऽप्यहम्। यो वदेच्चेदृशं वाक्यं से विनश्यति कालत:।। (अ॰ 35।14–15)
- ↑ स कर्ता कृष्णचंद्रस्तु गोलोकेश: परात्पर:। येन वै निर्मिता: सर्वे ब्रह्मविष्णुशिवादय:।। (अ॰ 35।25)
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