गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 33
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! वह शूरवीर कुनंदन जब ऐसी बात कह रहा था, उसी समय सैन्यपाल की आज्ञा से किसी ने शतघ्नी को छोड़ा। छोड़ने के साथ ही हाहाकार मच गया। नरेश्वर ! उस समय श्रीकृष्णचंद्र के स्मरण से एक विचित्र बात हो गई। शतघ्नी शीतल हो चुकी थी और आग की ज्वाला बुझ गई। राजसिंह ! यह आश्चर्य देख कर वहाँ खड़े हुए राजा आदि सब लोग बड़े विस्मित हुए। तब सैन्यपाल बोला– शतघ्नी की बारूद सूखी पड़ी है और उसमें गोले भी ज्यों के त्यों हैं, किंतु राजकुमार वहाँ नहीं है। इससे सिद्ध है कि वह रणक्षेत्र में मारा नहीं गया है। उसकी बात सुनकर वीरगण रुष्ट होकर बोले– यह परम बुद्धिमान पापशून्य शूरवीर राजकुमार भगवान श्रीकृष्ण का भक्त है। इसलिए भगवान ने ही उसे दु:ख से बचाया है। अब फिर तुम्हें इसका वध नहीं करना चाहिए । उन वीरों की बात सुनकर सैन्यपाल को बड़ा रोष हुआ। उसने जब पुन: दृष्टिपात किया तो राजकुमार शतघ्नी के मुख में बैठा दिखाई दिया। उसके अश्रु भरे नेत्र बंद थे और वह कृष्ण-कृष्ण जप रहा था। उसे देखकर उस दुष्ट सैन्यपाल ने फिर उसे मारने के लिए शतघ्नी दाग दी। किंतु उस समय शतघ्नी फट गई और उससे वज्रपात के समान शब्द हुआ। शतघ्नी के गोले से सैन्यपाल की मृत्यु हो गई और उसकी ज्वाला से उसका अनुसरण करने वाले सैनिक जल गए। कोई हाय–हाय करते हुए भागे, कोई धड़ाके की आवाज से बहरे हो गए और कितने ही धुएँ से घबरा गए। नृपेश्वर ! उस समय सबने राजकुमार को निर्भय देखा। देखकर बल्वल आदि सभी वीर जय–जयकार करने लगे । दैत्य बोले– जिसकी रक्षा श्रीकृष्ण करते हैं, उसे कौन मनुष्य मार सकता है ? जो भक्त का वध करने के लिए आता है, वह दैवयोग से आप ही नष्ट हो जाता है। जिन्होंने भय से इस राजकुमार की रक्षा की है, उन भक्त वत्सल श्रीकृष्ण को हम सब लोग नमस्कार करते हैं ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यं च रक्षति श्रीकृष्णस्तं को भक्षति मानव:। भक्तं हन्तु चागतो य: स विनश्यती दैवत:।।
तस्मात् कृष्णसमो नास्ति येनायं रक्षितों भयात्। सर्वे वयं नमस्यामस्तं कृष्णं भक्तवत्सलम्।।
( अ॰ 33 / 60 – 61 )
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |