गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 33
ऐसा कहकर राजकुमार ने अपना किरीट, भुजबंद, मोतियों का हार, सुवर्णमयी माला तथा कुण्डल और कड़े आदि सब आभूषण ब्राह्मणों को दान कर दिए। उन ब्राह्मणों ने बड़े दु:ख से उस राजकुमार को आशीर्वाद दिया । तदनन्तर स्नान करके, अपने शरीर में तीर्थ की मिट्टी पोतकर, मुख में तुलसीदल और कण्ठ में तुलसी की माला पहनकर राजकुमार श्रीकृष्ण ! हे राम ! इस प्रकार कहता हुआ भगवान का स्मरण करने लगा। राजेंद्र ! सैन्यपाल ने बलपूर्वक उसकी दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और रोषपूर्वक उसे शतघ्नी के मुख में डाल दिया। उसी समय हाहाकार मच गया। समस्त सैनिक फूट–फूट कर रोने लगे। बल्वल भी रो उठा और वहाँ खड़े हुए ब्राह्मण भी रोदन करने लगे। शतघ्नी में बारुद भरकर उसमें तांबे के गोले डाल दिए गए और वह अग्नियुक्त होकर तप गई। उस दशा में उस भयंकर शतघ्नी को देखकर राजकुमार कुनंदन सर्वव्यापी परमेश्वर श्रीकृष्ण को याद करके आंसू बहाता हुए यह निर्मल वचन बोला । जिनके नेत्र प्रफुल्लित कमलदल के समान विशाल हैं, दांतों की पंक्ति शंख और चंद्रमा के समान उज्ज्वल है, जो नरेंद्र के वेष में रहते हैं तथा जिनके चरणारविन्दों की इंद्रादि देववृंद भी वंदना करते हैं, उस श्रीकृष्ण मुकुन्दहरि का आज में प्राणान्तकाल में चिंतन करता हूँ। हे श्रीकृष्ण ! हे गोविंद ! हे हरे ! हे मुरारे ! हे द्वारकानाथ श्रीकृष्ण गोविंद ! हे व्रजेश्वर श्रीकृष्ण गोविंद ! तथा हे पृथ्वी पालक श्रीकृष्ण गोविंद ! आप भय से मेरी रक्षा कीजिए। गोविंद ! आपके स्मरण से हाथी ग्राह के संकट से छूट गया था। स्वायम्भु मनु, प्रह्लाद, अम्बरीष, ध्रुव, आनर्तराज कक्षीवान भी भय से मुक्त हुए थे। बहुला सिंह के चंगुल से छूटी थी। रैवत और चंद्रहास की भी आपकी शरण में जाने से रक्षा हुई थी, इसी प्रकार में भी आपकी शरण में आया हूँ।[1] अहो ! यदि युद्ध किए बिना पहले ही मेरी मृत्यु हो जाती है तो यह उचित नहीं है। अभी मैंने युद्ध स्थल में अपने बाणों द्वारा अनिरुद्ध को संतुष्ट नहीं किया। यादवों को संतोष नहीं दिलाया। श्री कृष्ण के पुत्रों के दर्शन नहीं किए। शार्गंधनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा अपने इस शरीर के टुकड़े टुकड़े नहीं करवाए। ऐसी दशा में शूरवीर कुनंदन की यह चोर के समान गति हो गई। भगवन् ! मैं आपका भक्त हूँ। मेरी दुर्गति देख कर समस्त पापिष्ठ मुझ पर हंसते हैं। जिसे भूमि पर देखकर यमराज भी पलायन करजाते हैं, विघ्न डालने वाले विनायक गण मर जाते हैं, उस पूजनीय एवं निरंकुश कृष्ण भक्त मुझ कुनंदन को शतघ्नी कैसे मार डालेगी । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कृष्ण मुकुन्दमरविन्ददलायताक्षं शंखेन्दुकुन्ददशनं नरनाथवेषम्। इन्दादिदेवगणवन्दितपादपद्मं प्राणप्रयाणसमये च हरिं स्मारामि ।।
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी श्रीकृष्ण गोविन्द कुशस्थलीश। श्रीकृष्ण गोविन्द व्रजेश भूप श्रीकृष्ण गोविन्द भयात् प्रपाहि ।।
स्मरणात्तव गोविन्द ग्राहान्मुक्तो मतगंज:। स्वायम्भुवश्च प्रह्लादो ह्यम्बरीषो ध्रुवस्तथा ।।
आनर्त्तश्चैव कक्षीवान् मृगेन्द्राद्वहुला तथा। रैवतश्चन्द्रहासश्च तथाहं शरणं गत: ।।
(अध्याय 33। 41-44)
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