गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 15
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! श्री राधिकाजी और भगवान श्रीकृष्ण का यह प्रशंसनीय प्रभाव सुनकर श्रीवृषभानु और कीर्ति दोनों अत्यंत विस्मित तथा आनन्द से आह्वादित हो उठे और गर्गजी से कहने लगे। दम्पति बोले- ब्राह्मण ! ‘राधा’ शब्द की तात्त्विक व्याख्या बताइये। महामुने इस भूतल पर मनके संदेह दूर करने वाला आपके समान दूसरा कोई नहीं है। श्री गर्ग जी ने कहा- एक समय की बात है, मैं गन्धमादन पर्वत पर गया। साथ में शिष्य वर्ग भी थे। वहीं भगवान नारायण के श्रीमुख से मैंने सामवेद का यह सारांश सुना है। ‘रकार’ से रमा का, ‘आकार’ से गोपिकाओं का, ‘धकार’ से धरा का तथा ‘आकार’ से विरजा नदी का ग्रहण होता है। परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण का सर्वोत्कृष्ट तेज चार रूपों में विभक्त हुआ। लीला, भू, श्री और विरजा ये चार पत्नियाँ ही उनका चतुर्विध तेज हैं। ये सब-की-सब कुंज भवन में जाकर श्री राधिका जी के श्रीविग्रह में लीन हो गयीं। इसीलिये विज्ञजन श्री राधा को ‘परिपूर्णतम’ कहते हैं। गोप! जो मनुष्य बारंबार ‘राधाकृष्ण’ के इस नाम का उच्चारण करते हैं, उन्हें चारों पदार्थ तो क्या, साक्षात भगवान श्रीकृष्ण भी सुलभ हो जाते हैं[1]। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! उस समय भार्या सहित श्री वृषभानु के आश्चर्य की सीमा न रही। श्रीराधा-कृष्ण के दिव्य प्रभाव को जानकर वे आनन्द के मूर्तिमान विग्रह बन गये। इस प्रकार श्री वृषभानु ने ज्ञानिशिरोमणि श्री गर्ग जी की पूजा की। तब वे सर्वज्ञ एवं त्रिकालदर्शी मुनीन्द्र गर्ग स्वयं अपने स्थान को सिधारे। इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अंतर्गत नारद-बहुलाश्व संवाद में ‘नन्द-पत्नि का विश्वरूप दर्शन तथा श्रीकृष्ण–बलराम नामकरण संस्कार’ नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रमया तु रकार: स्यादाकारस्त्वादिगोपिका। धकारो धरया हि स्यादाकारो विरजा नदी ।।
श्रीकृष्णस्य परस्यापि चतुर्धा तेजसोऽभवत्। लीला भू: श्रीश्च विरजा चतस्त्र: पत्न्य हि ।।
सम्प्रलीनाश्च ता: सर्वा राधायां कुञ्जमन्दिरे। परिपूर्णतमां राधां तस्मादाहुर्मनीषिण: ।।
राधाकृष्णेति हे गोप ये जपन्ति पुन: पुन:। चतुपष्दार्थं किं तेषां साक्षात् कृष्णोऽपि लभ्यते ।।-(गर्ग0, गोलोक0 15। 68-71)
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