गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 23
वही सत–असत से परे परमपद है। यह संपूर्ण चराचर जगत उससे भिन्न नहीं है। वही मूल प्रकृति है और वही व्यक्त रूपवाला संसार है। उसी में सबका लय होता है उसी में सबकी स्थिति है। जिनसे प्रकृति और पुरुष प्रकट होते हैं, जिनसे चराचर जगत का प्रादुर्भाव हुआ है तथा जो इस सकल दृश्य–प्रपंच के कारण हैं, वे परमात्मा श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों। राजेंद्र ! चारों युगों में वे ही श्रीविष्णु रूप से पालन रूप व्यापार का संचालन करते हैं। वे जिस प्रकार युगव्यवस्था करते हैं, वह सुनो। सत्ययुग में समस्त भूतों के हित में तत्पर रहने वाले वे सर्वभूतात्मा श्री हरि कपिल आदि का स्वरूप धारण करके उत्तम ज्ञान प्रदान करते हैं। त्रेता में चक्रवर्ती सम्राट के रूप में प्रकट हो वे ही प्रभु का निग्रह करते हुए तीनों लोकों का परिपालन करते हैं। द्वापर में वेदव्यास का स्वरूप धारण करके वे विभु एक वेद के चार वेद करके फिर शाखा प्रशाखा रूप से उसके सैकड़ों भेद करते हैं। फिर उसका बहुत विस्तार कर देते हैं। इस प्रकार वेदों का व्यास (विस्तार) करके कलियुग के अंत में वे श्रीहरि पुन: कल्कि रूप से प्रकट होते हैं और वे प्रभु दृष्टों को सन्मार्ग में स्थापित करते हैं। इस प्रकार अनन्तात्मा श्रीकृष्ण ही संपूर्ण जगत की सृष्टि, पालन और अंत में संहार करते हैं। उनसे भिन्न दूसरे किसी से ये सृष्टि आदि कार्य संपादित होते हैं। उन सच्चिदानंद स्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है, जिनसे यह प्राकृत या जड़ जगत भिन्न है। समस्त लोकों के आदिकारण वे श्री कृष्ण ही सबके ध्येय हैं। वे अविनाशी परमात्मा मुझ पर प्रसन्न हों। तस्मान्नृपेन्द्र हरिपौत्र मनोमयं च इसलिए नृपेंद्र ! हरिपौत्र ! जगत के संपूर्ण मनोमय सुख–दु:ख को छोड़कर तुम मोक्षदाता देवेश्वर एवं सब कुछ देने वाले द्वारावती नरेश भगवान श्रीकृष्णचंद्र का भजन करो। इस प्रकार जो भक्ति युक्त पुरुष भगवान श्रीकृष्ण के इस वृत्तसार का वर्णन करता और सुनता है, उसकी बुद्धि निर्मल हो जाती है। उसे कभी आत्मा के विषय में मोह नहीं होता। वह भगवत्स्मरण में संलग्न रह कर अविचल भक्ति की योग्यता प्राप्त कर लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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