गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 10
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजा की यह बात सुनकर पुत्रशोक से संतप्त हुई दीन-दु:खी रानी ने अपने पुत्रों का स्मरण करते हुए राजाधिराज उग्रसेन से कहा। रानी बोली- महाराज ! मैं पुत्रों के दर्शन से वंचित हँ; अत: मुझे ये सारी सम्पतियां, जो देवताओं के लिये भी प्रार्थनीय हैं, नही रूचती हैं। आप सुखपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान कीजिये (मुझे इससे कोई तमतलब नहीं है)। नृपेश्वर ! जब इस यज्ञ के प्रताप से सुन्दर पुत्र प्राप्त होता हो, तब तो मैं प्रसन्नचित होकर इसके अनुष्ठान में आपके साथ रहूँगी। रानी की यह बात सुनकर राजा का मन उदास हो गया। जैसे श्राद्धदेव मनु अपनी पत्नी श्रद्धा से वार्तालाप करते हैं, उसी प्रकार वे पुन: अपनी प्रिया से बोले। राजा ने कहा- भद्रे ! मैं जो कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो। पुत्रों की कामना बहुत दु:खदायिनी होती है। अत: उसे छोड़कर तुम साक्षात मुक्तिदाता परात्पर परमात्मा श्रीकृष्ण का भजन करो। मैं बूढ़ा हो गया और तुम भी वृद्धा हुई। फिर पुत्र कैसे होगा ? इसलिये बन्धन के कारण भूत अज्ञानजनित शोक को त्याग दो। राजन ! यादवराज उग्रसेन का यह विज्ञानप्रद उत्तम वचन सुनकर रानी रुचिमती अपनी यदुकुलतिलक पति से बोली । रुचिमती ने कहा- राजन ! यदि इस यज्ञ के प्रताप से मनोवांछित फल प्राप्त होता है तो मेरी भी एक मनोवाञ्छा है। मैं चाहती हूँ कि मेरे मारे गये पुत्र यहाँ आवे और मैं उन्हें देखूँ। यदि आप मेरे सामने ऐसी बात कहें कि ‘मरे हुए लोगों का दर्शन कैसे हो सकता है ?’ तो उसका उत्तर भी मेरे ही मुँह से सुन लें। राजेन्द्र ! भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गुरु को गुरुदक्षिणा के रूप में उनके मरे हुए पुत्र को लाकर दे दिया थ उसी प्रकार मैं भी अपने पुत्रों को सामने आया देखना चाहती हूँ। श्रीगर्गजी कहते हैं- रानी की बात सुनकर महायशस्वी महाराज उग्रसेन ने मुझको और श्रीकृष्ण को अन्त:पुर में बुलवाया। हम दोनों के जाने पर उन्होंने बड़ा भारी स्वागत सत्कार किया। हम दोनों का पूजन करके राजा ने हमसे अपना सारा अभिप्राय निवेदन किया। उग्रसेन की कही हुई बात सुनकर मैंने श्रीहरि को कुछ कहने के लिए प्रेरणा दी। नृपेश्वर ! जैसे उपेन्द्र इन्द्र से बोलते हैं, उसी प्रकार उस समय उन्होंने राजा से कहा। श्रीभगवान बोले- राजन ! सुनिये; पूर्वकाल में आपके जो-जो पुत्र संग्राम में मारे गये हैं, वे सब-के-सब दिव्यदेह धारण करके स्वर्गलोक में देवता के समान विद्यमान हैं। अत: नृपश्रेष्ठ ! आप पुत्रशोक छोड़कर धैर्यपूर्वक क्रतुश्रेष्ठ अश्वमेध का अनुष्ठान कीजिये। यज्ञ के अन्त मैं आपको आपके सभी पुत्रों के दर्शन कराऊँगा। श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर पृथ्वीपति उग्रसेन बड़े प्रसन्न हुए और अपनी प्रिया को सुन्दर वचनों द्वारा आश्वासन दे, श्रेष्ठ पुरुषों के साथ सुधर्मा-सभा में गये। श्रीकृष्ण सहित राजा उग्रसेन को आया देख दिक्पालों तथा बलराम और शिव आदि देवताओं ने प्रणाम किया। व्रजभान ! राजा उग्रसेन के उत्तम तप का मैं क्या वर्णन करूँ। इन्हें श्रीकृष्ण आदि सब लोग प्रणाम करते रहे हैं। यादवराज भी समस्त देवताओं को नमस्कार करके लज्जित हो कुछ सोचकर इन्द्र के दिये हुए दिव्य सिंहासन पर नहीं बैठे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसी क्षण हाथ पकड़कर अपने भक्त नरेश को उस इन्द्र सिंहासन पर बिठाया। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता के अंतर्गत अश्वमेध खण्ड में ‘राजा-रानी का संवाद’ विषयक दसवां अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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