गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 1
राजा ने कहा- देव ! श्रीकृष्ण–संकर्षण आदि समस्त यादव मुझे यहाँ छोड़ परलोक में चले गये, यह सोचकर ही मैं दु:खी हो गया। ब्रह्मन ! स्वामी, अमात्य, मित्र, राष्ट्र (जनपद), कोष, दुर्ग और सेना-राजा के सातों अंग मुझ एकाकी के लिये प्रीतिकारक नहीं होते हैं। मैंने भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र न तो देखा है और न किसी से सुना ही है; आप वह चरित्र मुझसे कहिये। मैंने अपनी आँखो से तो केवल यादवों का संहार देखा है, अत: मेरा दु:ख दूर नहीं हो रहा है। चतुर्व्यूह-रूपधारी श्रीहरि पहले जिस पुरी को सुशोभित किया था, वह भी समुद्र में डूब गयी और भगवान श्रीकृष्ण भी भक्ति के परमधाम गोलोक को चले गये। शिष्य वत्सल गुरुदेव ! आप ही बताइये, अब मैं किसके लिए जीवित रहूँ। आज ही वन को जाता हूँ। मेरे मन में राज्य करने की इच्छा नहीं है। सूतजी कहते हैं- यदुकुल शिरामणी वज्रनाभ की यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ महात्मा गर्ग ने उनकी प्रशंसा की और उनका दु:ख शान्त करते हुए-से वे संतुष्ट गर्गमुनि राजा वज्रनाभ से बोले। गर्ग ने कहा- वृष्णिवंशतिलक ! मेरी बात सुना; यह शोक का विनाश करने वाली है। समस्त पापों को हरने वाली, पवित्र तथा शुभ है। तुम सावधानी के साथ इस श्रवन करो। पूर्वकाल में जो भगवान श्रीकृष्णचन्द्र कुशस्थली (द्वारका) पुरी में विराजते थे वे सदा और सर्वत्र विराजमान हैं। भूपते ! अब तुम भक्तिभाव से उनको देखो। आज मैं तुम्हें भगवान की वह कथा सुनाऊँगा, जो भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। वसुधानाथ ! श्रीकृष्ण तथा बलरामजी की वह उत्तम कथा सुनो। सूतजी कहते हैं- विप्रवर शौनक ऐसा कहकर भगवान गर्ग ने वज्रनाभ को नौ दिनों तक अपनी पवित्र संहिता सुनायी। इस प्रकार श्रीमद् गर्ग संहिता में अश्वमेध चरित्र सुमेरू प्रसंग में ‘गर्ग वज्रनाभ संवाद’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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