गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 10
श्रीगर्गजी बोले- ब्रह्मन ! इस प्रकार कहकर दिव्यदर्शी भगवान नारद मुनि राजा बहुलाश्व से अनुमति लेकर सबके देखते-देखते आकाश में चले गये। तब महाराज बहुलाश्व ने भगवान श्रीहरि की इस संहिता को सुनकर श्रीकृष्णचन्द्र में मन लगाये हुए अपने को भली-भाँति कृतकृत्य समझ लिया। ब्रह्मन ! तुम्हारे प्रश्न करने पर मैंने यह संहिता कही है। किन्हीं के द्वारा सुनने अथवा पाठ कराने से भी यह करोड़ यज्ञों का फल देने वाली होती है। श्रीशौनकजी ने कहा- मुनिवर ! आपका संग मिल जाने पर मैं धन्य एवं कृतार्थ हो गया। साथ ही भगवान श्रीकृष्ण में प्रेम बढ़ाने वाली यह उत्तम भक्ति भी मुझे प्राप्त हो गयी। जो मुनियों के विशाल हृदय रूपी मानसरोवर में विचरने वाले राजहंस हैं, सम्पूर्ण आनन्दों से पूर्ण मधुर नाद करने वाली जिनकी बांसुरी है, जिनकी कला संसार में फैली हुई हैं, जिन्होंने शूरसेन के वंश में अवतार धारण किया है तथा संत पुरुषों ने जिनकी प्रशंसा गायी है, वे अपने बाहुबल से कंस का वध करने वाले भगवान श्रीकृष्ण तुम्हारी रक्षा करें। इस प्रकार मुनिवर गर्गाचार्य ने सम्पूर्ण मुनियों को आशीर्वाद दिया। साथ ही उनसे आज्ञा माँगी और प्रसन्नमन हो, जाने के लिये तैयार हो गये। फिर सर्ग-विसर्ग आदि नौ अंगों से युक्त ‘गर्ग संहिता’ का, जो स्वर्ग प्रदान करने वाली तथा चारों पदार्थों को देने में कुशल है, प्रतिपादन करके गर्गजी गर्गाचल पर चले गये। मैं भगवान श्रीराधापति के उन युगल चरण कमलों को अपने हृदय में स्थापित करता हूं, जो शरद् ऋतु के विकसित कमलों की शोभा धारण करने के कारण उनके अत्यन्त द्वेष पात्र हो रहे हैं, मुनिरूपी भ्रमर जिनका निरन्तर सेवन करते हैं, जो वज्र और कमल के चिह्नों से आवृत हैं, जिन पर सोने के नूपुर चमक रहे हैं, जिन्होंने भक्तों के ताप का सदा ही निवारण किया है तथा जिनकी दिव्य ज्योति छिटक रही है। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीविज्ञान खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘परमात्मा का स्वरूप निरूपण नामक’ दसवां अध्याय पूरा हुआ। (श्रीगर्ग संहिता के नौ खण्ड पूरे हो गये। ‘अश्वमेध’ का प्रसंग शेष रह गया, उसे सुनाने के लिये महर्षि गर्गाचार्यजी पुन: कथा का आरम्भ करेंगे और अश्वमेध खण्ड सुनायेंगे। तब गर्ग संहिता पूर्ण होगी) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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