गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 9
स्तुति- जो चेतनास्वरूप हैं, सत् एवं असत् से परे हैं, जो नित्य हैं, जिनका विराट रूप हैं, जो शान्तमूर्ति हैं, ऐश्वर्य स्वरूप हैं, सर्वत्र सम हैं, जिन्हें पाना अत्यन्त कठिन है तथा जिन्होंने अपने तेज से माया को सदा तिरस्कृत कर रखा है, उन आप परम ब्रह्म की मैं वन्दना करता हूँ। महामते ! इस प्रकार इन मन्त्रों द्वारा देवेश्वर भगवान की पूजा करे। फिर श्रीविष्णु को प्रणाम करके यत्नपूर्वक उनके सर्वांग का पूजन करना चाहिये। फिर- इस मन्त्र का उच्चारण करके प्राणायाम करे। तदनन्तर भगवान विष्णु, मधुसूदन, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर, हषीकेश, पद्मनाभ, दामोदर, संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, अधोक्षज और भगवान पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के लिये मेरा नमस्कार है। (यों नमस्कार करना चाहिये।) इसी प्रकार पैर, गुल्फ, जानु, ऊरु, कटि, उदर, पीठ, भुजा, कंधे, कान, नाक, अधर, नेत्र और भगवान के सिर में मैं अलग-अलग पूजा करता हूं- यों कहकर सर्वांग पूजा करनी चाहिये। फिर सखी, सखा, शंख, चक्र, गदा, पद्म, असि, धनुष, बाण, हल, मुसल, कौस्तुभमणि, वनमाला, श्रीवत्स, पीताम्बर, नीलाम्बर, वंशी, बेंत आदि तथा तालध्वज एवं गरुड़ध्वज से युक्त रथ, दारुक और सुमति सारथि, गरुड़, कुमुद, नन्द, सुनन्द, चण्ड, महाबल, कुमुदाक्ष आदि एवं विष्वक्सेन, शिव, ब्रह्मा, दुर्गा, गणेश, दिक्पाल, वरुण, नवग्रह और षोडश-मातृकाओं का आवाहन करे। इनके नाम के साथ ऊंकार लगाकर चतुर्थ्यन्त का प्रयोग करके ‘नम:’ शब्द जोड़ दे। तत्पश्चात् मन्त्रों द्वारा इन सब का पूजन करे। ऊं नमो वासुदेवाय नम: संकर्षणाय च। इस मन्त्र सौ बार आहुति देनी चाहिये। फिर भगवान की प्रदक्षिणा करके महाभोग निवेदित करे। तत्पश्चात् पृथ्वी पर साष्टांग दण्डवत प्रणाम करके यह मन्त्र पढ़े- ‘ध्येयं सदा’ इत्यादि (इसका भाव यह है) जो निरन्तर ध्यान करने योग्य हैं, जिनके प्रभाव से अपमानित नहीं होना पड़ता, जो मनोरथ को पूर्ण करने वाले हैं, जो तीर्थों के आधार हैं, शिव एवं ब्रह्माजी ने जिनका स्तवन किया है, जो शरण देने में कुशल हैं, भृत्यों का दु:ख दूर करना जिनका स्वभाव है, जो प्रणतजनों का पालन करने वाले तथा संसाररुपी समुद्र के लिये जहाज हैं, भगवान पुरुषोत्तम ! आपके उन चरण-कमलों को मैं प्रणाम करता हूँ। राजन् ! इस प्रकार भक्त भगवान को प्रणाम करके भगवद् भक्तों के साथ विधिवत पुन: आरती करे। उस समय विवेकी पुरुष को चाहिये कि घड़ी, घण्टा, वीणा, बांसुरी, करताल और मृदंग आदि बाजों के साथ भगवान का कीर्तन करे। उस समय भगवद् भक्तजन प्रेम में विह्वल हुए भगवान के सामने नाचते हैं, उनके जय-जयकार की ध्वनि प्रकट करते रहते हैं। और वे भगवान की सुन्दर लीला-कथा का गान करने लगते हैं। तदनन्तर प्रभु को पुन: नमस्कार करके सूर्य के समान उज्ज्वल मन्दिर में महात्मा श्रीकृष्णचन्द्र को भलीभाँति शयन कराये। राजन् ! इस प्रकार जो दत्तचित होकर भगवान श्रीकृष्ण की सेवा करता है, उसे स्वर्ग के रहने वाले देवता लोग प्रणाम किया करते हैं। महाराज ! वह श्रीहरि का भक्त भी मृत्यु के अवसर पर स्वर्ग में पैर रखकर भगवान के परमधाम गोलोक को, जो योगियों के लिये भी दुर्लभ है, चला जाता है। यह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की सेवा का विधान है। मैंने इसका वर्णन कर दिया। यह मनुष्यों को चारों पदार्थ देने वाला है। अब तुम फिर क्या सुनना चाहते हो। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीविज्ञान खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘पूजोपचार तथा पूजन-प्रकार का वर्णन’ नामक नवां अध्याय पूरा हुआ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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