गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय
देहली पर कल्पवृक्ष, खंभों पर मनोहर लताएँ, जहाँ-तहाँ दीवालों पर पापनाशिनी गंगा, यमुना, वृन्दावन, गोवर्धन, चीरहरण तथा रास मण्डल आदि के लीलाचित्र अंकित कराये। फिर यत्न करके चित्रकूट, पंचवटी, राम एवं रावण का युद्ध अंकित कराये, किंतु उसमें जानकी-हरण का प्रसंग अंकित न कराया जाय। दसों अवतारों के चित्र, नरनारायणाश्रम (बदरिकाश्रम), सातों पुरियां, तीनों ग्राम, नौ वन और नौ ऊसर भूमि के चित्र अंकित करा के मन्दिर का निर्माण कराये। तदनन्तर उसमें भगवान श्रीकृष्ण के विग्रह की स्थापना करे। श्रीकृष्ण की किशोर अवस्था हो और वे हाथ में बांसुरी लिये उसे बजाना ही चाहते हो तथा उनका दाहिना पैर टेढ़ा हो- इस प्रकार का रूप सेवा के लिये सर्वोत्तम माना गया है। भक्त परम भक्ति के साथ इस प्रकार के विग्रह स्वरूप की शीघ्र ही गुरु के द्वारा मन्दिर में प्रतिष्ठा करा दे और फिर अत्यन्त भाव के साथा सेवा में तत्पर हो जाय। जीभ को भगवान के प्रसाद के रस में, नासिक को तुलसी दल की सुगन्ध में और कानों को भगवान के कथा श्रवणों में लगा दे। इस प्रकार सेवा परायण हो जाय। भागवतोत्तम पुरुषों का कहना है कि जो भाव को जानने वाला पुरुष रात दिन श्रीकृष्ण की सेवा करता है, वही प्रेम-लक्षण सम्पन्न उत्तम भक्त है। राजन् ! एक हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ भगवान श्रीकृष्ण के सेवन की सोलहवीं कला के एक अंश के बराबर भी नहीं हैं। जो मनुष्य श्रीकृष्णचन्द्र की लीलाकथा तथा सेवा के उपदेश का भी दर्शन कर लेता है, वह करोड़ों जन्म के किये हुए पापों से छूट जाता है- इसमें कोई संशय नहीं है। देहावसान हो जाने पर उसे ले जाने के लिये श्याम सुन्दर के समान मनोहर विग्रह वाले भगवान के पार्षद गोलोक से रथ लेकर दौड़े आते हैं। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीविज्ञान खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में 'मन्दिर निर्माण तथा विग्रह प्रतिष्ठा एवं पूजा की विधि' का वर्णन नामक छठा अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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