गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 3
समानत्व की अभिमति होने पर भी केवल भगवान की सेवा के प्रति ही उनकी उत्कण्ठा बनी रहती है। ऐसे भक्त एकत्व (साजुज्य) अथवा ब्रह्म के साथ एकता रूप कैवल्य को भी कभी नहीं लेते। उनका अभिप्राय यह है कि यदि ऐसा हो जाय तो स्वामी और सेवक के धर्म में अन्तर ही क्या रह जायगा। जो निरपेक्ष भक्त होते हैं, उनकी सब में समान दृष्टि रहती है। उनका स्वभाव शान्त होता है और वे किसी से वैर नहीं रखते। उनकी यह धारणा है कि कैवल्य से लेकर सांसारिक समस्त पदों का ग्रहण करना सकाम भाव के ही अन्तर्गत है। जिस प्रकार फूलों की गन्ध को नासिका ही जानती है, आंख को उसका ज्ञान नहीं होता, ठीक वैसे ही निरपेक्षता रूप महान आनन्द को भगवान के निष्काम भक्त ही जानते हैं। जैसे रस को बनाने वाला हाथ रस के स्वाद से सदा अनभिज्ञ ही रहता है, उसी प्रकार सकामी भक्त कभी भी उस आनन्द को नहीं जान सकते। अतएव राजन् ! इस भक्ति योग को ही तुम परम श्रेष्ठ पद समझो। अब निष्काम भक्तों की उपासना पद्धति तुम्हारे सामने वर्णन करता हूँ, उसका स्वरूप है- भगवान विष्णु का स्मरण, उनके नाम गुणों का कीर्तन, श्रवण, चरणों की सेवा, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और अपने को भगवान के चरणों में निवेदित कर देना। राजन् ! जो निरन्तर भगवान की प्रेम लक्षणा भक्ति करते हैं, वे भगवद्भाव की भावना करने वाले भक्त जगत में दुर्लभ हैं। जो बड़ों के प्रति बराबरी वालों के साथ मित्रता का तरह से दया अपनी बराबरी वालों के साथ मित्रता का बर्ताव करते हैं, सम्पूर्ण जीवों पर जिनकी सदा दया रहती है, जो भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के मधुर हैं, जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण दर्शन की लालसा बनी रहती है, जो अपने विदेशस्थ स्वामी को याद करने वाली स्त्री की भाँति भगवान श्रीकृष्ण को याद करते रहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण के स्मरण से जिनका रोम-रोम पुलकित हो उठता है, नेत्रों से आनन्द की धारा बहने लगती है, भगवान के विरह में कभी-कभी जिनके शरीर का रंग बदल जाता है, जो मधुर वाणी से ‘श्रीकृष्ण ! हरे ! की रट लगाये रहते हैं तथा रात-दिन भगवान श्रीहरि में जिनकी लगन लगी रहती है, वे ही भागवतोत्तम भगवान के उत्तम भक्त हैं। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीविज्ञान खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘सकाम-निष्काम भक्ति योग का वर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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