गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 1
राजा उग्रसेन बोले- ब्रह्मन् ! आज आपके यहाँ पधारने पर मेरा जन्म, महल तथा धर्माचरण-सब कुछ सफल हो गया। भगवन् ! आप जैसे सदा आनन्दस्वरूप महानुभावों की कुशल तो स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र को अभीष्ट है। फिर भी अपनी कुशल कहिये, जिससे मैं निश्चिन्त हो जाऊँ। प्रभो ! आपके समान साधुपुरुष जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ वहाँ लौकिकी और पारलौकिकी दोनों प्रकार की सिद्धियाँ रहती ही हैं। मुनीवर व्यासजी। जहाँ संत पुरुष एक क्षण भी निवास करते हैं, वहाँ स्वयं श्रीहरि रहते हैं; ब्रह्मन् ! फिर लौकिक गुणों की तो बात ही क्या है। मुनिवर ! मैंने पूर्वजन्म में कौन सा पुण्य अथवा यज्ञ किया था, जिसके फलस्वरूप मुझे द्वार का राज्य प्राप्त हो गया। यही नहीं आपके सामने बड़े-बड़े ब्राह्मण देवता मेरे महलों में प्रतिदिन पधारते रहते हैं। इससे मैं अनुमान करता हूँ कि मैंने निस्संदेह सबसे बड़ा पुण्य किया है। व्यासजी ने कहा- महाराज ! तुम धन्य हो तथा तुम्हारी निर्मल बुद्धि को भी धन्यवाद है। राजन् पूर्वजन्म में तुमने सबसे बड़ा पुण्य किया था। राज तुम्हारा नाम मरुत था। मन में किसी भी प्रकार की कामना न रखकर तुमने विश्वजित नाम का यज्ञ किया था। उससे भगवान श्रीहरि प्रसन्न हुए। तुम्हारे निष्काम भाव से तुम्हें यह परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है। श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीहरि ही हैं। अनन्त ब्रहाण्ड उनके अधीन हैं और वे परात्पर प्रभु गोलो के स्वामी हैं। वे परम स्वतन्त्र होने पर भी भक्ति के वशीभूत हो तुम्हारे महलों में विराजते हैं। यदुराज ! यही बड़ी विचित्र बात है कि भजन करने वालों को भगवान मुक्ति दे देते हैं, किंतु भक्ति का साधन कभी नहीं देते। राजन् ! इसीलिये भक्तियोग को बहुत दुर्लभ समझो। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीविज्ञान खण्ड के अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व संवाद में ‘द्वारका में श्री वेदव्यास का आगमन’ नामक पहला अध्याय समाप्त हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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