गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 50
राजसूय यज्ञ का मंगलमय उत्सव; देवताओं, ब्राह्मणों तथा अतिथियों का दान-मान से सत्कार नारदजी कहते हैं- राजन् ! अर्थ सिद्धि के द्वारभूत पिण्डारक क्षेत्र में, जो रैवतक पर्वत और समुद्र के बीच में स्थित है, यज्ञ का आरम्भ हुआ। उस यज्ञ में जो कुण्ड बना, उसका विस्तार पाँच योजन का था। ब्रह्मकुण्ड एक योजन का और पाँच कुण्ड दो कोस में बनाये गये। वे सभी कुण्ड मेखला, गर्त, विस्तार और वेदियों के साथ सुन्दर ढंग से निर्मित हुए थे। वहाँ का महान यज्ञमण्डप का विस्तार पाँच योजन था, जो चँदोवों और बंदनवारों से सुशोभित था। केले के खंभे उसकी शोभा बढ़ाते थे। भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन तथा दशार्ह वंश के यादवों से घिरे हुए राजा उग्रसेन देवताओं से युक्त इन्द्र की भाँति उस यज्ञमण्डप में शोभा पाते थे। जैसे परमात्मा अपनी विभूतियों से शोभा पाता है, उसी प्रकार परिपूर्णतम भगवान यज्ञावतार श्रीकृष्ण उस यज्ञ में अपने पुत्रों और पौत्रों से सुशोभित होते थे। महान सम्भार का संचय करके, गर्गाचार्य को गुरु बनाकर यदुराज उग्रसेन ने क्रतुश्रेष्ठ राजसूय यज्ञ की दीक्षा ली। मैथिल ! उस यज्ञ में दस लाख होता, दस लाख दीक्षित अध्वर्यु और पाँच लाख उद्गगाता थे। अग्नि कुण्ड में हाथी की सूँड़ के समान मोटी घृत की धारा गिरायी जाती थी, जिसे खा पीकर अग्नि देवता अजीर्ण रोग के शिकार हो गये। उस दिनों तीनों लोकों में कोई भी जीव भूखे नहीं रह गये। सब देवता सोमपान करके अजीर्ण के रोगी हो गये। अपनी धर्मपत्नी रुचिमती के साथ बलवान यादव राज उग्रसेन ने पिण्डार तीर्थ में यज्ञ का अवभृथ-स्नान किया। वे व्यास आदि मुनीश्वरों के साथ वेदमन्त्रों के द्वारा विधिपूर्वक नहाये। जैसे दक्षिणा से यज्ञ की शोभा होती है, उसी तरह रानी रुचिमती के साथ राजा उग्रसेन की शोभा हुई। देवताओं तथा मनुष्यों की दुन्दुभियाँ बजने लगीं और देवता उग्रसेन के ऊपर फूल बरसाने लगे। सोने के हार से विभूषित चौदह लाख हाथी उग्रसेन ने दान किये। सौ अरब घोड़े उन्होंने यज्ञान्त में दक्षिणा के रूप में दिये। बहुमूल्य हारों और वस्त्रों के साथ करोड़ों नवरत्न मुनिवर गर्गाचार्य को भेंट किये। साथ ही उन्हें घर गृहस्थी के उपकरण भी अर्पित किये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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