गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 21
मानद ! दुर्योधन रथ पर आरुढ़ हो पुन: युद्ध के लिये आया। उसके साथ दस अक्षौहिणी सेना थी, जिसका महान कोलाहाल छा रहा था। मिथिलेश्वर ! उस समय पुराणपुरुष देवेश्वर बलराम और श्रीकृष्ण वहाँ प्रकट हो गये। बलराम के रथ तालध्वज और श्रीकृष्ण के रथ पर गरुड़ध्वज शोभा दे रहे थे। वे दोनों भाई अपनी दिव्यकान्ति से सम्पूर्ण दिशाओं को देदीप्यमान कर रहे थे। उस समय देवता जय-जयकार कर उठे। मुख्य-मुख्य गन्धर्व मनोहर गान करने लगे। देवताओं के आनक और दुन्दुभियों की ध्वनि हरने लगी तथा देवांगनाएं खील और फूल बरसाने लगीं। उसी समय यदुवंशी वीर परेश्वर बलराम और श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करने लगे। सभी–शस्त्र रखकर उन्हें उत्तम बलि अर्पित करने लगे। सभी प्रसन्न थे और सबके हाथ जुडे़ हुए थे। परमेश्वर श्रीहरि ने अपने मदोन्मत प्रद्युम्न आदि पुत्रों को डांट बतायी और भीष्म आदि कौरवों को प्रणाम करके, दुर्योधन से मिलकर वे दोनों इस प्रकार बोले । श्रीबलराम और श्रीकृष्ण ने कहा- राजन ! इन बाल बुद्धि वाले यादवों ने जो कुछ किया है, उसके लिये क्षमा कर दो; अपने मन में दु:ख न माने। नृपेश्वर ! इन लोगों ने जो भी कठोर बात कही है, वह हम दोनों के प्रति कही गयी मान लो। राजन ! इस भूतल पर यादव और कौरवों में कदापि किंचितमात्र भी कलह नहीं होना चाहिये। ये सब परस्पर सम्बन्धी और ज्ञाति हैं। हम लोग धोती और उत्तरीय की भाँति परस्पर एक-दूसरे का प्रिय करने वाले हैं । नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! कौरवों से निरन्तर पूजित और सेवित हो देवेश्वर बलराम और श्रीकृष्ण प्रद्युम्न आदि यादवों के साथ वहाँ अत्यन्त सुशोभित हुए । इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नाद बहुलाश्व संवाद में ‘यादव और कौरवों में मेल’ नामक इक्कीसवां अध्याय पूरा हुआ । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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