गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 10
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! तदनंतर नन्दने विस्मित होकर शिशुरूपधारी शेष का उन्हें दर्शन कराया। पालने में विराजमान शेष जी का दर्शन कर चुके सत्यवती नन्दन ने उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। श्री व्यास जी बोले- भगवन ! आप देवताओं के भी अधिदेवता और कामपाल (सबका मनोरथ पूर्ण करने वाले) हैं, आपको नमस्कार है। आप साक्षात अनन्तदेव शेषनाग हैं, बलराम हैं; आपको मेरा प्रणाम है। आप धरणीधर, पूर्णस्वरूप, स्वयंप्रकाश, हाथ में हल धारण करने वाले, सहस्र मस्तकों से सुशोभित तथा संकर्षण देव हैं, आपको नमस्कार है। रेवती-रमण ! आप ही बलदेव तथा श्रीकृष्ण के अग्रज हैं। हलायुध एवं प्रलम्बासुर के नाशक है। पुरुषोत्तम ! आप मेरी रक्षा कीजिये। आप बल, बलभ्रद तथा ताल के चिह्न से युक्त ध्वजा धारण करने वाले हैं; आपको नमस्कार है। आप नीलवस्त्रधारी, गौरवर्ण तथा रोहिणी के सुपुत्र हैं; आपको मेरा प्रणाम है। आप ही धेनुक, मुष्टिक, कुम्भाण्ड, रूक्मी, कूपकर्ण, कूट तथा बल्वल के शत्रु हैं। कालिन्दी की धारा को मोड़ने वाले और हस्तिनापुर को गंगा की ओर आकर्षित करने वाले आप ही हैं। आप द्विविद के विनाशक, यादवों के स्वामी तथा व्रजमण्डल के मण्डन (भूषण) हैं। आप कंस के भाइयों का वध करने वाले तथा तीर्थयात्रा करने वाले प्रभु हैं। दुर्योधन के गुरु श्री साक्षात आप ही हैं। प्रभो ! जगत की रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले परात्पर देवता साक्षात अनंत ! आपकी जय हो, जय हो। आपका सुयश समस्त दिगंत में व्यापत है। आप सुरेन्द्र, मुनीन्द्र और फणीन्द्रों में सर्वश्रेष्ठ हैं। मुसलधारी, हलधर और बलवान हैं; आपको नमस्कार है। जो इस जगत में सदा ही इस स्तवन का पाठ करेगा, वह श्रीहरि के परमपद को प्राप्त होगा। संसार में उसे शत्रुओं का संहार करने वाला सम्पूर्ण बल प्राप्त होगा। उसकी सदा जय होगी और वह प्रचुर धन का स्वामी होगा।[1] श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! पराशरन्दन विशाल बुद्धि बादरायण मुनि, सत्यवती कुमार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास उन मुनियों के साथ बलरामजी को सौर बार प्रणाम और परिक्रमा करके सरस्वती नही के तटपर चले गये। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अंतर्गत श्री नारद-बाहुलाश्व संवाद में ‘बलभद्रजी के जम्म का वर्णन’ नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीव्यास उवाच-
देवाधिदेव भगवन् कामपाल नमोऽस्तु ते। नमोऽनन्ताय शेषाय साक्षाद्रामाय ते नम: ।।
धराधराय पूर्णाय स्वधाम्ने सीरपाणये। सहस्त्रशिरसे नित्यं नम: संकर्षणाय ते ।।
रेवतीरमण त्वं वै बलदेवोऽच्युताग्रज: हलायुध: प्रलम्बघ्न: पाहि मां पुरुषोत्तम ।।
बलाय बलभ्रदाय तालांकाय नमो नम:। नीलाम्बराय गौराय रौहिणेयाय ते नम: ।।
धेनुकारिर्मुष्टिकारि: कुम्भाण्डारिस्त्वमेव हि। रुक्मयरि: कूपकर्णारि: कूटारिर्बल्वलान्तक:॥
कालिन्दीभेदनोऽसि त्वं हस्तिनापुरकर्षक:। द्विविदारिर्यादवेन्द्रो व्रजमण्डलमण्डन: ।।
कंसभ्रातृप्रहन्तासि र्तीथयात्राकर: प्रभु:। दुर्योधनगुरु: साक्षात् पाहि पाहि प्रभो जगत् ।।
जय जयाच्युत देव परात्पर स्वयमनन्त दिगन्तगतश्रुत। सुरमुनीन्द्रफणीन्द्रवराय ते मुसलिने बलिने हलिने नम: ।।
इह पठेत्सततं स्तवनं तु य: स तु हरे: परमं पदमाव्रजेत्। जगति सर्वबलं त्वरिमर्दनं भवति तस्य जय: स्वधनं धनम् ।।-(गर्ग0, गोलोक0 10।36-44)
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