गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 20
नारदजी कहते है- राजन् ! इस प्रकार कहती और निरन्तर रोती हुई श्रेष्ठ लक्ष्मी रूपा श्रीराधा को देखकर श्यासुन्दर का अंग-अंग करूणा से विह्वल हो गया। उनके नेत्रों से भी अश्रु झरने लगें। उन्होंने तत्काल दोनों हाथों से खीचंकर प्रियतमा को हृदय से लगा लिया और नीतियुक्त वचनों से धीरज बँधाया। श्री भगवान बोले- राधे ! शोक न करो, मैं तुम्हारे प्रेम से ही यहाँ आया हूँ। हम दोनों का तेज एवं भेदरहित एवं एक है। लोगों ने इसे दो मान रखा है। शुभे ! जैसे दूध और उसकी धवलता एक है, उसी प्रकार सदा हम दोनों एक हैं। जहाँ मैं हूँ, वहाँ तुम सदा विराजमान हो। हम दोनों का वियोग कभी होता ही नहीं। मैं पूर्ण परबह्म हूँ और तुम जगन्माता तटस्था शक्ति हो। हम दोनों के बीच मे वियोग की कल्पना मिथ्या ज्ञान के कारण है, तुम इसे समझों। वरान ने ! जैसे आकाश में नित्य विराजमान महान वायु सर्वत्र व्यापक है, जैसे जल सूक्ष्मरूप से सर्वत्र व्याप्त है, जैसे काष्ठ मे अग्रि व्याप्त रहती और जैसे भीतर और बाहर स्थित यह पृथग्भूता पृथ्वी परमाणु रूप से सर्वत्र व्याप्त है, उसी प्रकार मैं निर्विकार भाव से सर्वत्र विधमान हूँ। जैसे जल विविध रंगों से युक्त होने पर उनसे पृथक है, उसी प्रकार मैं त्रिगुणात्मक भावों के सम्पर्क मे रहकर भी उनसे सर्वथा असम्पृक्त हूँ। इसी प्रकार तुम मेरे स्वरूप को देखो और समझों, इससे सदा आनन्द बना रहेगा। सुमुखि ! 'मैं' और 'मेरा'- इन दो भावों के कारण द्वेत की कल्पना होती है। जब तक सूर्य से ही उत्पन्न हुआ मेघ सूर्य और सूर्य और दृष्टि के बीच में विद्यमान है, तब तक दृष्टि अपने ही स्वरूपभूत सूर्य का दर्शन नहीं कर पाती। इस प्रकार जब तक प्राकृत गुण व्यवधान बनकर खडे़ है, तब तक जीवात्मा अपने ही स्वरूपभूत परमात्मा को नहीं देख पाता। इन तीनों गुणों का आवरण दूर होने पर ही परमात्मा साक्षात्कार कर पाता है। यदि मन गुणों (विषयों) में आसक्त है तो वह बन्धनकारक होता है और यदि परम पुरुष परमात्मा में संलग्न है तो मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला हो जाता है। इस प्रकार मन को बन्धन और मोक्ष- दोनों का कारण बताया गया है। उस मन को जीतकर पृथ्वी पर असंख्य होकर विचरे। भामिनि ! लोक में मन का सम्पूर्ण भाव (सम्बन्ध) दोनों ओर से परस्पर की अपेक्षा रखकर होता है, एक ओर से नहीं होता। किंतु प्रेम स्वयं ही किया जाता है, अत: मुझ में अपनी ओर से ही प्रेम करना चाहिये। प्रेम के समान इस भूतल पर दूसरा कोई भी मेरी प्राप्ति का साधन नहीं हैं । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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