गर्ग संहिता
माधुर्य खण्ड : अध्याय 10
वे सभी पुलिन्द कंस के सेवक हो गये। नृपेश्वर ! उन सबने अपने कुटुम्ब के साथ कामगिरि पर निवास किया। उन्हीं के घरों में भगवान श्रीराम के उत्कृष्ट वरदान से वे पुलिन्द–स्त्रियाँ दिव्य कन्याओं के रूप में प्रकट हुई, जो मूर्तिमती लक्ष्मी की भाँति पूजित एवं प्रशंसित होती थीं। श्रीकृष्ण के दर्शन से उनके हृदय में प्रेम की पीड़ा जाग उठी। वे पुलिन्द कन्याएँ प्रेम से विह्वल हो भगवान की श्रीसम्पन्न चरण रज को सिर पर धारण करके दिन-रात उन्हीं के ध्यान एवं चिन्तन में डूबी रहती थीं। वे भी भगवान की कृपा से रास में आ पहुँची और साक्षात गोलोक के अधिपति, सर्वसमर्थ, परिपूर्णतम परमेश्वर श्रीकृष्ण को उन्होंने सदा के लिये प्राप्त कर लिया। अहा ! इन पुलिन्द-कन्याओं का कैसा महान सौभाग्य है कि देवताओं के लिये भी परम दुर्लभ श्रीकृष्ण चरणारविन्दों की रज उन्हें विशेष रूप से प्राप्त हो गयी। जिसकी भगवान के परम उत्कृष्ट पाद-पद्य-पराग में सुदृढ़ भक्ति है, वह न तो ब्रह्मजी का पद, न महेन्द्र का स्थान, न निरन्तर स्थायी सार्वभौम सम्राट का पद, न पाताल लोक का आधिपत्य, न योगसिद्धि और न अपुनर्भव (मोक्ष) को ही चाहता है। जो अकिंचन हैं, अपने किये हुए कर्मों के फल से विरक्त हैं, वे हरि चरण रज में आसक्त भगवान के स्वजन महात्मा भक्त मुनि जिस पद का सेवन करते हैं, वही निरपेक्ष सुख है, दूसरे लोग जिसे सुख कहते हैं, वह वास्तव में निरपेक्ष नहीं है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ परिपूर्णतं साक्षाद्गोलोकाधिपतिं प्रभुम् ।।
श्रीकृष्णचरणम्भोजरजो देवै: सुदुर्लभम्। अहोभाग्यं पुलिन्दीनां तासां प्राप्तं विशेषत:।।
य: पारमेष्ठच्मखिलं न महेन्द्रधिष्ण्यं नो सार्वभौममनिशं न रसाधिपत्यम्।
नो योगसिद्धिमभितो न पुनर्भवं वा वाञ्छत्यलं परमपादरजस्सुभक्त:।।
निष्किंञ्चना: स्वकृतकर्मफलैर्विरागा यत्तत्पदं हरिजना मुनयो महान्त:।
भक्ता जुषन्ति हरिपादरज: प्रसक्ता अन्ये वदन्ति न सुखं किल नैरपेक्ष्यम्।।-(गर्ग0 माधुर्य0 10। 13-16)
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