गर्ग संहिता
माधुर्य खण्ड : अध्याय 1
श्रीभगवान ने कहा- गोपियों ! मैं ममता और अहंकार रहित, सबके प्रति समान भाव रखने वाला, सर्वव्यापी, सबसे उत्कृष्ट, सदा विषमताशून्य तथा प्राकृत गुणों से रहित हूँ। इसी प्रकार ज्ञानी साधु-महात्मा भी सदा विषम भावना से रहित होते हैं। योगयुक्त विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह कर्मों में आसक्त हुए अज्ञानीजनों में बुद्धि-भेद न उत्पन्न करे। उनसे सदा समस्त कर्मों का सेवन ही कराये। जिस पुरुष के सभी समारम्भ (आयोजन) कामना ओर संकल्प से शून्य होते है, उनके सारे कर्म ज्ञानरूपी अग्नि में दग्ध हो जाते हैं (अर्थात उनके लिये वे कर्म बन्धकारक नहीं होते) ऐसे पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित (तत्वज्ञ) कहते हैं। जिसके मन में कोई कामना नहीं है, जिसने चित्त ओर बुद्धि को अपने वश में कर रखा है तथा जो समस्त संग्रह-परिग्रह छोड़ चुका है, वह केवल शरीर निर्वाह संबंधी कर्म करता हुआ किल्विष (कर्मजनित शुभाशुभ फल) को नहीं प्राप्त होता। इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र दूसरी कोई वस्तु नहीं है। योगसिद्ध पुरुष समयानुसार स्वयं ही अपने आप में उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, जो समस्त कर्मों को ब्रह्मर्पण करके आसक्ति छोड़कर कर्म करता है, वह पाप से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जैसे कमल का पत्र जल से। इसलिये दुर्वासा मुनि तुम सबसे हित-साधन में तत्पर होकर बहुत खाने वाले हो गये। स्वत: उन्हें कभी भोजन की इच्छा नहीं होती। वे केवल परिमित दूर्वारस का ही आहार करते हैं। श्रीनारदजी कहते हैं- मैथिलेश्वर ! श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर समस्त गोपियों का संशय नष्ट हो गया। वे श्रुतिरूपा गोपांग्नाएँ ज्ञानमयी हो गयीं। इस प्रकार श्रीगर्ग-संहिता में माधुर्य खण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘श्रुतिरूपा गोपियों का उपाख्यान’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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